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प्राकृत व्यापारणशास्त्र का उद्भव एव विकास १६७
अकरत धन्न इकरत नपुसग 'अस्थि '। उकारत पीलु महु च अता पुसाण ।।६।।
___ अणुओगदारसुत्त (व्यावरसस्करण), सूत्र १२३ समास, तद्धित, धातु और निरुक्त का विवेचन भी इस ग्रन्थ मे है। समास के सात भेद बतलाये गये है। यथा -
ददे अ बहुब्बीहि कामधारय दिगु अ ।
तत्पुरिस अव्वइभावे एकक सेसे अ सत्तमे ॥१॥ द्वन्द, बहुव्रीहि, कर्मधारय, द्विगु, तत्पुरुष, कर्मधारय और एकशेष ये सात समास हैं। इनमें प्रत्येक के उदाहरण भी इस ग्रन्थ मे दिये गये है। तद्धित के आठ भेद बतलाए गये है', यथा कर्मनाम, शिल्प, सिलोक, सयोग, समीप, समूह, ईश्वरीय एवं अपत्य नाम
कम्मे सिप्पसिलाए सजोग समीअवो अ सजूहो।
इस्सरिअ अवच्चेण य तद्धितणाम तु अट्टविह ॥ इसी ग्रन्थ मे आठो विभक्तियो का उल्लेख है तथा किस-किस अर्य मे ये विभक्तिया होती है इसका भी सोदाहरण उल्लेख किया गया है ।
इस तरह अन्य आगम ग्रन्थो व उनकी टीकाओ मे शब्दानुशासन सम्बन्धी कुछ सामग्री उपलब्ध हो सकती है। यह इस वात की द्योतक है कि प्राकृत भाषा के साहित्यकार भी व्याकरण के नियमो से परिचित थे तथा उनका प्रयोग अपने ग्रन्थो की भाषा में करते थे। इससे एक यह भी सभावना होती है कि प्राचीन समय मे प्राकृत का व्याकरण अवश्य लिखा गया होगा, जिसकी परम्परा मे प्रसिद्धि थी, किन्तु आज वह उपलब्ध नही है।।
अनुपलब्ध प्राकृत व्याकरण प्राकृत व्याकरण शास्त्र के इतिहास में ऐसे कई वैयाकरणो और उनके ग्रन्थो का उल्लेख मिलता है, जो आज उपलब्ध नहीं हैं। उनका यहा विवरण दे देना आवश्यक है, क्योकि पता नही कव शास्त्र भण्डारो से उनके व्याकरण ग्रन्थ प्राप्त हो जाय।
ऐन्द्र-व्याकरण
जैन ग्रन्थो मे परम्परागत से यह उल्लेख है कि भगवान महावीर ने इन्द्र के लिए एक शब्दानुशासन कहा था, उसे उपाध्याय (लेखाचार्य) ने सुनकर लोक मे ऐन्द्र नाम से प्रगट किया