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भिक्षुशब्दानुशासन का तुलनात्मक अध्ययन १६१
प्रणयन पाणिनि के द्वारा न होकर शाकटायन के द्वारा होने का एक प्रमुख कारण "वायु" शब्द की निष्पत्ति भी है। "अजेयं धत्रयो" इस सूत्र के भाष्य मे "अज्" धातु से यु प्रत्यय करके प्रकृति को वी भाव निपातन के द्वारा वायु शब्द को सिद्ध किया गया है। यदि उणादि सूत्र पाणिनिकृत होते तो उणादि के पहले सूत्र "कृवाया जिमिस्वादिसाध्यशूभ्य उण्" के द्वारा वातीति वायु इस विग्रह मे वा धातु से उण प्रत्यय और युगागम के द्वारा वायु शब्द बनाया गया होता।
इससे सिद्ध होता है कि पाणिनि पूर्ववर्ती कोई शाकटायन नामक ऋपि हो चुके है, जिन्होने न केवल उणादि सूत्र ही बनाये किन्तु उनका कोई स्वतन्त्र व्याकरण अन्य भी रहा होगा, जो आज अनुपलब्ध है। पाणिनि ने अपने अण्टाध्यायी मे शाकटायन का स्मरण बडे सम्मान के साथ किया है "लड शाकटायनस्य"।
भिक्षुशब्दानुशासन जिस सरलीकरण की प्रक्रिया को लक्ष्य करके प्रवृत्त हुआ है, उसमे इसे पूर्ण सफलता मिली है। इसकी इस प्रवृत्ति से उणादि सूत्र अछूते नही है
पलेराश ३१३४ = पलाश कलेर्मष ३।६३ कलमपम् समेखि ३११२४ = सखा सारेरथि ३।१६६ = सारथि अतेरिथि ३।१७२ = अतिथि तडेराग ११९७ = तडाग
कमरेलक ११६६ = क्रमेलक इन कतिपय उदाहरणो से स्पष्ट है कि भि क्षुशब्दानुशासन आणादिक विचार मे जनेन्द्र और शाकटायन से बहुत आगे है। सूत्रो के पढते ही अर्थ की अभिव्यक्ति और प्रयोगो पर उनका तात्कालिक प्रभाव यह इस शब्दानुशासन की अनुपम देन
इन सारे विवेचनो से सिद्ध होता है कि भिक्षुशब्दानुशासन एक सर्वाङ्गसम्पन्न ध्याकरण है। इसमे नाम, आख्यात, उपसर्ग, निपात तथा सन्धियो का प्रोड किन्तु सरल प्रणाली से विवेचन किया गया है । नवीन सूत्रो की रचना, धातुओ की नयी परिकल्पना तया उनके अर्थों की व्यवहारोपयोगिता ये सारी चीजे इसके रचयिता की अपूर्व प्रतिभा को अभिव्यजन करती है। यह शब्दानुशासन प्रकाशित होकर संस्कृत पाड्मय को गौरवान्वित करेगा और इसकी उपयोगिता निविचिकित्स होगी।
सदर्भ १ देखिये भिक्षुशब्दानुशासन का न्यायदर्पण