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________________ भिक्षुशब्दानुशासन-का तुलनात्मक अध्ययन १८६ पहले 'युष्मदस्यदोर्लोप स्यादी" २।११४१ सूत्र से दकार का लोप हो जाने पर "अवर्णस्याम सुट्" १।३।२३ सून से सुट् क्यो नही होता यह प्रश्न यहा भी समाधान की अपेक्षा रखता है। किन्तु इतना अवश्य है कि पाणिनि के बाद सरलीकरण की प्रक्रिया जो व्याकरण के नवनिर्माताओं के द्वारा अपनायी गई थी, उसकी चरम और विकसित परिणति 'भिक्षुशब्दानुशासन' मे देखने को मिलती है। "पाणिनि जहाँ "टाड सिड सामिनास्था' सूत्र से 'टा, सि, उस को क्रमश इन, आत् और स्य आदेश करते है, और शाकटायन "ड सास्येस्स्येनाद्यम्" १।२।१६५ से वही कार्य करते है वहाँ भिक्षुशब्दानुशासन मे ) १ टेन १।४।१५ टा को इनादेश+रामेण जिनेन इत्यादि उदाहरण । २ डेर्य ११४११६ डे० को यादेश →जिनाय देवाय इत्यादि उदाहरण। । ". ३ डसिशद् १।४।१३ डसि को आत्-देवात् इत्यादि उदाहरण । । ४ उसस्य १।४।१४ उस को स्थ→ देवस्य, जिनस्य इत्यादि उदाहरण । इस प्रकार के सूत्र निर्माण द्वारा प्रक्रिया को अत्यन्त सरल एव सुबोध बनाया गया है। व्याकरणशास्त्र के जिज्ञासु के लिये निश्चय ही यह प्रणाली सर्वाधिक उपादेयं सिद्ध हो सकती है। ____ इस निवन्ध मे उणादि सून भी बहुचर्चित है, इसलिये इनके ऊपर थोडा विचार करना आवश्यक प्रतीत हो रहा है। । पाणिनि की अष्टाध्यायी मे "उणादयो बहुलम्' सूत्र आता है। इसी प्रकार का सून जनेन्द्र और शाकटायन ने भी स्वीकृत किया है। भट्टोजिदीक्षित की वैयाकरण सिद्धान्त कौमुदी मे उणादि पाच पादो मे विभक्त है। जैनेन्द्र और शाकटायन में केवल एक एक सूत्र हैं । भिक्षु शब्दानुशासन मे उणादि चारपादो मे विभक्त है तथा इसमे सैकडों सूत्र है। प्रश्न होता है कि ये उणादि सून सर्वप्रथम किसके द्वारा बनाये गये। इस पर कुछ विद्वानो की राया है कि उणादि सूत्र शाकटायन के बनाये हुए है। किन्तु इस सम्बन्ध मे विशेष ध्यातव्य है कि जन सम्प्रदाय के आचार्य शाकटायन का सम्बन्ध इन उणादि सूत्रो से नहीं हैं। इसके निम्नलिखित कारण हैं १ ये प्रसिद्ध जनाचार्य शाकटायन केवल लौकिक शब्दो का अपाख्यान करते है । वैदिक शब्दो का अन्वाख्यान इन्हे अभिप्रेत नही था। इसीलिये वैदिक शब्दो मे अभीष्टस्वरी की सिद्धि के लिये पाणिनि ने जो 'अनुवन्ध प्रत्ययो तथा आगमो मे लगाया है इस शाकटायन ने उन सभी अनुबन्धो का परित्याग कर दिया है। उदाहरण के लिये स्त्री प्रत्यय मे डीप और डी का भेद पाणिनि ने केवल स्वर सिद्धि के लिये ही किया है। शाकटायन ने दोनो प्रत्ययो के लिये केवल डी प्रत्यय का ही उल्लेख किया है।
SR No.010482
Book TitleSanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
PublisherKalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
Publication Year1977
Total Pages599
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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