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भिक्षुशब्दानुशासन एक परिशीलन : १६३
६२ मन्दाल्पाच्च मेधाया ८।३।७३
मन्दमेधस् अल्पमेधम् । पाणिनीय मे यह सूत्र नहीं है, इसलिए वहा ये दो रूप नहीं बनते। ६३ भृशाभीक्षण सातत्यत्रीप्सासु द्वि प्राक् तमादे ८।३।८५
पाणिनीय मे प्राक् तमादे यह पाठ नही है । ६४ नानावधारणे ८।४।६७
___ अवधारण के अर्थ मे वर्तमान शब्द द्वित्व होता है । माष माष देहि ।
पाणिनीय मे यह सूत्र नही है। ६५ पूर्वप्रथमावन्यतोतिशय ८।४१६८
प्रथम प्रयम पच्यन्ते । पाणिनीय मे यह सूत्र नहीं है। ६६ डत रडतमी समाना स्त्रीभावप्रश्ने ८।४।६६
कतरा कतरा एषा माढयता। कतमा कतमा एषा माढयता। पाणिनीय मे यह सूत्र नही है।
श्री भिक्षुशब्दानुशासन महाव्याकरण की कोटि मे अब तक अतिम है। इसलिए इसमें पूर्ववर्ती सभी व्याकरणो का सार-मोहन उपलब्ध है। अतिम को पूर्ववर्ती रचनाओ का जो लाभ मिलता है, वह लाभ भिक्षु शब्दानुशासन को भी प्राप्त है। सस्कृत व्याकरण के अष्टाध्यायी पद्धति से होने वाले अध्ययन के सरलीकरण के उद्देश्य मे यह सफल हुआ है । यह सफलता ही इसकी अपनी विशेषता है। विशालगन्दानुशासन, हेमशब्दानुशासन और पाणिनीय आदि पूर्ववर्ती महाव्याकरणो के अनुदान की उपेक्षा कर इसका मूल्याकन नही किया जा सकता । सभव है, अगले वर्ष यह व्याकरण प्रकाशित होकर विद्वानो के हाथो मे आ जाए।