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सस्कृत व्याकरणो पर जैनाचार्यों की टीकाएं एक अध्ययन १२१
पूर्व पूर्वक विप्रणीतविविधग्रन्थेषु दृष्टास्तत , निर्णीता हृदये निरूप्य निपुण ये धातुपारयिणम् । धातूना तनुधीरपि व्यरचयत्तेषामिम संग्रहम्, विद्यानन्दकविविशुद्धहृदय कायस्थवशोद्भव ।। વ્યુત્પત્તિવર્મચાવેશ શાસ્ત્ર નરેંદ્રમુવી રળીયા धात्वर्थतन्मातनिरूपणेन यतो मतिमोहमुपैति तेषाम् ।।
१६ क्रियाकलाप
जिनदेवसूरि ने भी यह ग्रन्थ लिखा था। स० १५२० का एक हस्तलेख श्रीजयप्रभसूरि के शिष्य मुनि पूर्णकलश द्वारा लिखा गया अहमदाबाद मे प्राप्त है।
२० चतुष्कव्यवहारदण्डिका ___श्रीधनप्रभसूरि ने इसे लिखा था। इसका तद्धितप्रकरणात भाग ही हस्तलेखो मे प्राप्त होता है । प्रारम्भ मे देवी सरस्वती को नमस्कार कर उनसे यह मडगलकामना की गई है कि मेरी इस व्याख्या का समादर विद्वज्जन करे। अन्य हस्तलेखो मे गुरुप्रसाद से चतुकव्यवहाराख्य ग्रन्थ के विस्तार करने की बात कही
नम श्रीसरस्वत्यै भगवत्यै । प्रणम्य ता जगत्पूज्या गुरू५च देवी सरस्वतीम् । यस्या प्रसादमात्रण स्याद् रुद्रोऽपि कवीश्वर ॥ सुप्रसाद चतुष्कस्य लिखिता दुण्डिकामिमाम् । करोतु मे महायोगिध्याया गी परमेश्वरी ।। इति ।।
ॐनमो विघ्नराजाय । नत्वा जिन गुरो सत्प्रसादाद् अन्य प्रतन्यते । चतुको व्यवहाराख्य श्रीधनप्रभसूरिणा ।। इति ।।
२१ दुर्गपदप्रबोध
जिनेश्वरसूरि के शिष्य प्रबोधमूतिगणि ने १४ वी शताब्दी मे सम्पूर्ण कातन्तसंतो पर इसकी रचना की थी। उनके प्रारम्भिक लेख के अनुसार इस ग्रन्थ मे सभी मतो का सार सन्निहित होना चाहिए
ग्रन्थ सम्यगम विभाव्य निखिला वृत्ति प्रसगात् तथा, क्वापि वापि च ५जिकामति सभावार्थ विदित्वा जनात् । વિજ્ઞાથ મસ્તતોગવિનમતચળ્યોર્થસાર સમા लोच्यसेव्य च मुक्तिमार्गमचिराज् ज्ञान लभन्ता परम् ॥ इति ।।