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१२० : मस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा
परिजान बताया गया है। इसका हस्तलेख अहमदावाद में प्राप्त है । ग्रन्थ के अन्त मे इस प्रकार परिचय दिया गया है
कोशिकान्वयस भूत सर्वदेवात्मजो भुवि । रामाख्यया प्रसिद्वो हि नगरो विप्रसेवक. ।।
जडाना मुखवोधार्य कृतवान् वाक्यविस्तरम् ।। इति श्रीनगरमहास्थानवास्तव्यनागरशातीय-कोशिकान्वयव्याससर्वदेवसुतपण्डितराम विरचित शब्द-कारक-समास-तद्धितक्रिया-कृत्प्रयोगाणा लौकिकमापया विहित वाक्यविस्तर समाप्तमिति भद्र भूयात् ।
१६ कातन्त्रविभ्रमटीका ___ स० १३५२ मे जिनप्रभसूरि ने इस टीका की रचना की थी। यद्यपि इस टीका के अनेक हस्तलेख जयपुर, बीकानेर, अहमदावाद आदि मे देखने को मिले, परन्तु उनका अध्ययन न किए जा सकने से टीका का स्वरूप नही बताया जा सकता । ग्रन्थकार द्वारा रचनाकाल, रचनास्थान का निर्देश इस प्रकार किया गया
है
પક્ષેષ શકિતશશિગૃન્મિતવિમાવે ઘાલ્યકિતે હૃતિથી પુરિયોયિનીના कातन्त्र विभ्रम इह व्यतनिष्ट टीकाम् સીદવીરપિ નિનકમમૂરિતામ્ II
१७ कातन्त्रवृत्तिपन्जिका __आचार्य जिनेश्वर सूरि के शिष्य सोमकीति ने कातनवृत्ति पर इस टीका की रचना की है, इसका हस्तलेख जैसलमेर मे है। इस व्याकरणसम्प्रदाय मे आचार्य त्रिलोचनदास द्वारा प्रणीत पाजका' व्याख्या सुप्रसिद्ध है। दोनो आचार्यों का समय निश्चित न होने से यहा विशे५ कुछ भी नहीं कहा जा सकता है । (द्र० जनसाहित्य का वृहद् इतिहास, भाग ५)। १८ क्रियाकलाप
धातुपा० पर यह व्याख्या कायस्यवशीय विद्यानन्द ने लिखी थी। ग्रन्थकार ने इस व्याख्या के सबन्ध मे कहा है कि जो व्युत्पन्न नही है उन्हे इसका व्यवहार नही करना चाहिए, क्योकि ग्रन्थ मे दशित धातु, उनके अर्थों का निरूपण करने से ही उनकी बुद्धि मोहित हो सकती है । इसके हस्तलेख बीकानेर तथा अहमदावाद मे देखे गए है । ग्रन्यकार ने वणित विषय मादि के सम्बन्ध मे कहा है