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७२ सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोण की परम्परा
पाणिनि के समान हम को सलाओ का तात्पर्य भी अधिक शब्दावली को अपने अनुशासन द्वारा ममेटना मालूम पड़ता है। अत हेम ने पाणिनि और जनेन्द्र की अपेक्षा कम सनाओ का प्रयोग करके भी कार्य चला लिया है। इस सत्य से कोई इनकार नहीं कर सकता कि हेम ने पाणिनीय व्याकरण का अवलोकन कर उनकी मनाओ को ग्रहण नही किया है। हस्व, दीर्घ और प्लुत सज्ञाए पाणिनि ने भी लिखी है, किन्तु हम ने इन सनाओ मे स्पष्टता और सहज वोधगम्यता लाने के लिए एक, द्वि और तिमानिक को क्रमश हस्व, दीर्थ, दीर्थ और प्लुत कह दिया है । यद्यपि पाणिनि के 'उकालो भ्रस्वदीर्थप्लुत' १।२।२६ सून मे हेम का उक्त भाव अकित है, किन्तु हेम ने एक मालिक, द्विमालिक और निमालिक कह कर सर्वसाधारण के लिए स्पष्टीकरण कर दिया है। ___ हेम और पाणिनि की सजाओ मे एक मौलिक अन्तर है कि हेम प्रत्याहारो के झमेले मे नही पड़े हैं। इनकी सज्ञामो मे प्रत्याहारो का विलकुल अभाव है । वर्णमाला के वर्णो को ले कर ही हेम ने सज्ञा विधान किया है। पाणिनि ने प्रत्याहारो द्वारा सज्ञाओ का निरूपण किया है, जिससे प्रत्याहार क्रम को स्मरण किये विना संज्ञाओ का अर्थ वोव नही हो सकता है । अत हेम का समाविधान पाणिनि और जनन्द्र की अपेक्षा सरल एव स्प८८ है।।
१० सन्धि-प्रकरण मे भी हेम ने लाधव को कायम रखने की पूरी चेष्टा की है। गुण मन्धि मे ऋ के स्थान पर अर् और लू के स्थान पर अल् किया है । पाणिनि को इमी कार्य की सिद्धि के लिए पृथक रणरपर' ११११५ सूत्र लिखना पडा है। हेम ने इस एक सूत्र की वचत कर ली है। पाणिनि ने 'एडिपररूपम्' १११।६४ सूत्र द्वारा पहले न हो और बाद में ए हो तो पर रूप करने का अनुशासन किया है। हम ने 'वोप्ठाता ममास' १।२।१७ द्वारा लुक का नियमन किया है । अत पाणिनि को अपमा हेम मे लायक है । हेम ने यह प्रक्रिया शाकटायन से अपनायी है।
पाणिनि ने ७।११५७ के द्वारा जिस के स्थान मे 'शी' होने का विधान किया है, हेम ने ११४१६ द्वारा मीधे जम् के स्थान पर 'ई' कर दिया है। इसका कारण यह है कि पाणिनि के यहा यदि 'ई' का विधायन होता, तो जस के अन्तिम वर्ण स् को भी होने लगता, अतएव उन्होने शकार अनुवन्ध को लगाना आवश्यक समझा और समस्त जन् के म्यान पर भी का विधान किया। हेम के यहा इस तरह कुछ भी जमेना नही है। इनके यहा जम् के स्थान पर किया गया 'ई' का नियमन समस्त भर के स्थान पर होना है। अत यहा हेम की लाधव दृष्टि प्रशसनीय है। हेम ने पाणिनि पी तरह सर्वादि की मर्वनाम मना नहीं की है, किन्तु सर्वादि कह कर ही गाम चलाया है। जहा पाणिनि ने सर्वनाम को रोक कर सर्वनाम प्रयुक्त कार्य गं है, बहामने नदि ही नहीं मान कर काम चलाया है। यह भी हेम की लापय दृष्टि । नृपा है । पाणिनि ने साम् को माम् बनाने के लिए मुद आगम