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सम्यक्त्व विमर्श
१ शंका-जिनेश्वरो के वचनो मे शका करना, अनन्त ज्ञानियो एवं आगमकारो के वचनो और उसमे रहे हुए आशय को नहीं समझकर उनकी सत्यता मे सन्देह करना-खतरे का प्रथम स्थान है । समझने के लिए प्रयत्न करना आवश्यक हैउपादेय है । प्रत्येक वस्तु को हृदयंगम करने के लिए विशेषज्ञो को पूछना तो स्वाध्याय नाम के तप का 'पृच्छा' नामक दूसरा भेद है-गुण है, दोष नही है। किंतु उसकी सत्यता के प्रति सन्देह लाना-'शंका' नाम का दोष है। यह दोप यदि आत्मा मे घर कर जाय, तो सम्यक्त्व नाशक बन जाता है।
संसार मे ऐसी अदृश्य वस्तुएँ अनन्त हैं कि जिनका प्रत्यक्ष हमारे जैसे व्यक्ति नही कर सकते । उनके अस्तित्व एवं स्वरूपादि का ज्ञान, प्राप्त वचनो से ही होता है । यदि हम उन वचनो पर विश्वास नही करे और अप्रत्यक्ष वस्तुओ पर अविश्वास करे, तो नास्तिकता ही हाथ लगेगी।
अप्रत्यक्ष तो दूर रहे, हम प्रत्यक्ष वस्तु को भी पूर्ण रूप से नही जान सकते,उन्हे दूसरे अनुभवियो के वचनो पर विश्वास करके उपभोग मे लाते है। हम अपने शरीर के रोग को दूर करने के लिए वैद्य अथवा डॉक्टर की दी हुई दवाई को विश्वास पूर्वक गले उतार लेते हैं। दवा की शीशी हमारे हाथ मे होते हुए भी हम नही जान सकते कि इसमे क्या है,-दवा है या विष, या कोरा पानी ही है । अपने हाथ मे रही हुई वस्तु मे भी प्रत्यक्ष कम और प्रच्छन्न अधिक होता है । अच्छे अनुभवी डॉक्टर के हाथ मे एक दवाई की गोली या टिकिया रख दीजिए और