________________
दूषण शंका
७५
..
.....
..
पूछिए कि इसमे क्या क्या गुण है और किन किन वस्तुओ से बनी है ? वह अनुभवी डॉक्टर, दवा की गोली को प्रत्यक्ष देखते हुए भी कुछ नहीं बता सकेगा। वह उसके विवरण को पढ़ कर भी किसी खास गुण को ही बता सकेगा । जब हमारे हाथ मे रही हुई वस्तु को भी (जिसे हम देख रहे हैं) पूर्ण रूप से नही जान सकते, तो परोक्ष वस्तु को कैसे जान सकते है ? इस विषय मे अनुभवियो पर विश्वास करना ही पडेगा । प्रत्येक विषय में अपनी बुद्धि से तोल कर ही मानने का आग्रह करने वाले और जिन वचनो मे शंका अथवा अविश्वास करने वाले लोग, सम्यक्त्व की सीमा से एकदम बाहर हैं।
एक 'जैन पंडित' कहलाने वाले महाशय ने 'श्रमण' अगस्त ५२ के पृ० ६ मे "क्या मैं जैन हूँ.?" शीर्षक लेख मे अपनी नास्तिकता स्वीकार करते हुए लिखा कि
"आस्तिक बनने की सब से बड़ी योग्यता यही मानी. जाती है कि व्यक्ति धार्मिक और दार्शनिक मामलो में स्वयं कुछ न सोचे । दूसरे महान् समझे जाने वाले व्यक्ति ने उसके लिए सब कुछ सोच कर रख दिया है । अतएव स्वयं कुछ सोचने की आवश्यकता नही-यह बात मैं नहीं मानता, इसलिए भी मुझे लोग नास्तिक समझते हैं।"
यह लिखना तो साफ झूठ है कि-"धार्मिक और दार्शनिक विषयो मे कुछ सोचना ही नही-यह आस्तिकता की सबसे वडी शर्त है।" क्योकि जैन धर्म ने स्वाध्याय के दूसरे भेद मे 'पच्छा' और चौथे भेद मे 'अनुप्रेक्षा' को स्वीकार किया है।