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सम्यक्त्व विमर्श
प्रश्न उचित एवं सामयिक है। भगवान् महावीर और निर्ग्रन्थ-प्रवचन के नाम पर गलत प्रचार भी हुआ है और हो रहा है। कोई लिखता है-'भगवान् ने सर्व-धर्म समभाव का उपदेश दिया, तो कोई कहता है कि 'अछुतोद्धार ही परम धर्म है।' एक महात्मा फरमाते है कि 'जगत् की भावनाओ के आधीन बनना सबसे उत्तम धर्म है', तो दूसरे उपदेश करते है कि 'तर्क की कसौटी पर खरा उतरे उसी को धर्म मानना चाहिए,इसके अतिरिक्त सभी सिद्धात त्यागने योग्य है।' इस प्रकार अनेक विचार प्रचारित होते हैं और ये सब भगवान् के नाम पर होते हैं । इनसे साधारण उपासको का भटक जाना स्वाभाविक है। यदि ऐसे विचारो का प्रचारक. गुरु पद पर हो और विशेष पढा लिखा हो, तो वह बडी चतुराई से, सरलतापूर्वक लोगो के गले मे अपने विचार उतार सकता है । यह खतरा अपने जैसो से ही अधिक होता है । दूसरे लोग तो पहले से-'पर' कहलाते है। इसलिए उनकी बात पर हमारा विश्वास प्राय नही होता। किंतु अपने होकर जो कुछ कहते है, उन पर सामान्य उपासक तो विश्वास करेगा ही । क्योकि वह मानता है कि 'ये अपने है, विद्वान है, ये जो कुछ कहते हैं, वह सत्य ही है।' इस प्रकार मानकर वह खरे के भरोसे खोटा भी अपना लेता है। इस प्रकार के परिवर्तको में "अभिनिवेश" की मात्रा अधिक होती है। उनकी धुन यही है कि किसी प्रकार मेरी बात सर्वोपरि रहे । इसके लिए वे कदाग्रह मे पड़ जाते हैं, विभेद बढाते हैं और स्व-पर का अहित कर डालते हैं, परन्तु अपने हठ को