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केवलज्ञान के समान
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मिथ्यात्व पकडा देते हैं और कई जीवो के सम्यक्त्व-रत्न को लट लेते हैं। कितनी विषम स्थिति है-यह । जब संयती के रूप मे असयती पूजे जाते हो, निग्रंथ के वेश मे सग्रन्थ का जाल फैल रहा हो, और असली के नाम से नकली चलते हो, तब सम्यक्त्व कितनी दुर्लभ हो जाती है ? शास्त्रकार "सद्धा परमदुल्लहा" कहकर सम्यक्त्व की महान् दुर्लभ्यता बताते है । यह यथार्थ है । अनादिकाल से जीव, मिथ्यात्व मे ही गोते लगाता रहा और सम्यक्त्व प्राप्ति के अभाव में उसका भावी अनन्त भव भ्रमण भी कायम रहा। यह सम्यक्त्व-रत्न उस अनन्त भव-भ्रमण की जड को काट कर फेक देता है। अनन्तानुबन्धी आदि का उच्छेद अथवा उपशम क्षयोपशम हो, तभी सम्यक्त्व की प्राप्ति संभव होती है । इस प्रकार इसकी दुर्लभता अपने आप सिद्ध है । जब सम्यक्त्व रत्न के पुरस्कर्ता महर्षियो के समय भी यह दुर्लभ थी, तो आज के विषम जमाने मे (-जब कि इसके बाधक कारण विशेष रूप से बढ गये है) इसकी प्राप्ति असभवसी कही जाय तो अतिशयोक्ति नही है । . जितना दुर्लभ उस जमाने मे केवलज्ञान नही था, उतना दुर्लभ आज सम्यग्दर्शन हो गया । केवलज्ञान पर डाका नही पड सकता-लूट नही चलती, क्योकि वह परिपूर्ण है, परन्तु सम्यक्त्व-रत्न की लूट तो हो सकती है । क्षायोपशमिक सम्यक्त्व वापिस जा सकती है । अभी तो सम्यक्त्वी कहे जाने वालो के द्वारा ही विशेष रूप से लूट हो रही है । ऐसे विकट समय मे सम्यक्त्व की प्राप्ति, केवलज्ञान के बराबर दुर्लभ मानी जाय तो