________________
२८२
सम्यक्त्व विमर्श
साधको के लिए असंभव नही था । दुशक्य था, फिर भी दृढ निश्चयी एवं निष्ठापूर्वक साधना करनेवाले साधक के लिए वह स्वाभाविक था । किन्तु प्राज ?
ww
आज तो सम्यक्त्व की प्राप्ति भी दुर्लभ बन गई है । आज वैसे उत्तम निमित्तों का तो अभाव है ही, परन्तु इस समय के योग्य श्रुतधर भी बहुत थोड़े रह गये हैं । उन थोडो के मार्ग मे भी बहुत बडी बाधा खडी होगई है । एक ओर सैकडो दिखाई देनेवाले निग्रंथो मे इने-गिने ही निर्ग्रथ प्रवचन का उपदेश करने वाले है, दूसरे बहुत से तो उनके प्रभाव को नष्ट करके सग्रथ-पथ के प्रदर्शक बन चुके है । कई राष्ट्र - नेताओ, लौकिक विद्या के स्नातको, एव भौतिक वैज्ञानिको के प्रभाव से प्रभावित होगये है, और उनसे संमान प्राप्त करने के लिए अनेक प्रकार के प्रपञ्च करते हैं। कोई लौकिकवाद के ही प्रचारक बन बैठे है । निर्ग्रथो के वेश मे, निग्रंथ-प्रवचन के नाम पर, जो लौकिक मार्ग कासंसार मार्ग का=उन्मार्ग का प्रचार करे, वहा सम्यक्त्व की प्राप्ति सुलभ कैसे हो सकती है ?
I
अत्यन्त खेद का विषय है कि एक बहुरूपिया भी अपने रूप-वेश के महत्व को कायम रखता है । वह राजा के वेश मे रहकर दान या बख्शीश नही लेता, किंतु भगवान् महावीर के निग्रंथ का वेश पहिने हुए कई लोग, उनकी कायम की हुई मर्यादा का खुले रूप मे भंग करते हुए, उनके सिद्धात के विरुद्ध बोलते और लिखते हुए तथा मिथ्यात्व का प्रचार करते नही शरमाते । ऐसे लोग, कई भोले-भाले उपासको को सम्यक्त्व के नाम पर