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केवलज्ञान के समान
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धित करने जाते थे-वह भी परमार्थ बुद्धि से । उनके मन मे मान-प्रतिष्ठा पाने की इच्छा लेश-मात्र भी नही रहती थी। वे उस विशेष व्यक्ति की गरज करने वाले नही थे । स्वाभाविक और अपने आपमे विश्वस्त रहते हए वे उपदेश देते और फिर निरपेक्ष हो जाते । उनके उन परिमित शब्दो का प्रभाव भी अपूर्व होता था। वे शब्द, ऐसी पवित्र एवं बलवान आत्मा के होते थे कि जिनका प्रभाव, योग्य प्रात्मा पर अवश्य होता था। ऐसे उत्तम निग्रंथो और प्रभावशाली, योग्य उपासको के योग से निग्रंथ-प्रवचन का प्रभाव, विशेष रूप से फैला था। ऐसे समय योग्य पात्र के लिए पूरी अनुकूलता थी । यदि किसी का उपादान-आत्म-योग्यता कुछ निर्बल होती, तो उस बलवान निमित्त का योग पाकर निर्बलता दूर हो जाती और वह व्यक्ति मोक्षमार्ग का पथिक हो जाता। उस समय सम्यक्त्व तो ठीक, परन्तु केवलज्ञान प्राप्त करना भी दुसाध्य नही था। आज लौकिक विद्या मे एकाध विषय को लेकर स्नातक बननेवाले विद्यार्थी को भी साधारणतया १०, १५ वर्ष लगजाते हैं, किंतु उस समय लोकोत्तर स्नातक-आत्मस्नातक-समस्त विषयो के सम्पूर्ण रूप से ज्ञाता-सर्वज्ञ बनने मे यथा परिणति समय लगता। हमने पर्युषण पर्व मे सुना कि महात्मा सुदर्शन और पूर्णभद्र, केवल पाच वर्ष की साधना मे ही पूर्ण स्नातक बन गये
और अर्जुन अनगार तो केवल छ महीने में ही स्नातक बनकर सिद्ध भगवान् होगए । यह थी उस समय की परिस्थिति । यह था उस समय का उत्तम योग । तब केवल ज्ञान प्राप्त करना