SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 288
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २६४ सम्यक्त्व विमर्श ट्ठी अयंमुणी" (दशवै ५--२--३४) ऐसे अनेक नमूने प्रागमो मे मिल सकते हैं । इससे स्पष्ट दिखाई देता है कि जैन-धर्म सम्मत संयम, तप, नियम, विरति आदि सब प्रात्म-शोधन की दृष्टिपूर्वक होते हैं । संवर और निर्जरा, आत्म-शुद्धि कारक तत्त्व है । इनकी सहायता से प्रात्मा की पूर्ण विशुद्धि होकर परमात्म-दशा प्रकट होती है जो अंतिम तत्त्व है। संवर निर्जरा की साधना से मोक्ष के ध्येय की सिद्धि होती है अर्थात् व्यवहार साधना से निश्चय साध्य सिद्ध होता है। जिनागमो के विधान, निश्चय-व्यवहार उभय संमत हैं । जिनागमो मे निश्चय के लक्ष्य के साथ व्यवहार-धर्म का पाचरण करके कृतार्थ होने का उपदेश हुमा है । श्री जिन-धर्म, न तो एकात निश्चयवाद मे है और न एकात व्यवहारवाद मे । वह है निश्चय और व्यवहार उभय सम्मत सम्यग् प्राचरण मे। अनादि काल से, अनन्त पर से बद्ध, संबद्ध और क्षीरनीरवत् एकमेक हुए आत्मा का, केवल जान लेने और श्रद्धा कर लेने से ही विशुद्ध होजाना अशक्य है । स्व-पर का भेद समझ लेने-विश्वास कर लेने से ही, पर से सर्वथा सम्बन्ध नही छुट जाता । इसके लिए स्वात्म-स्थिरता अनिवार्य है और स्थिरता, बिना शुक्लध्यान के प्राप्त नही हो सकती । शुक्ल ध्यान की प्राप्ति भी धर्मध्यान की उत्कृष्टता को प्राप्त करने वालो मे से किसी को होती है और धर्मध्यान मे परावलम्बन है ही। वह परावलम्बन, सजातीय विशुद्धतर और विशुद्धतम आत्मामो और उनके उपदेश का होता है, जो विजातीय पर
SR No.010468
Book TitleSamyaktva Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1966
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy