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आगमों में आत्म-लक्षी विधान
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होकर आत्म-रक्षक होजाय ।
(उत्तरा. २-१५) (२३) “चरेज्जत्तगवेसए"-आत्म-गवेषक हो कर सयम मे विचरे।
(उत्तरा. २-१७) (२४) "तेगिच्छं णाभिणंदिज्जा, संचिक्खत्तगवेसए"-प्रात्म-गवेषक मुनि, चिकित्सा-रोग का उपचार करने की इच्छा भी नही करे, किंतु शान्तिपूर्वक सहन करे।
(उत्तरा. २-३३) (२५) “आयाणुरक्खी चरेऽप्पमत्तो"- आत्मरक्षक मुनि, अप्रमत्त होकर विचरे। (उत्तरा. ४-१०)
६) "नरस्सत्तगवेसिस्स विसं तालउडं जहा"-काम भोग और स्त्रियो से परिचय, ये आत्म-गवेषी पुरुष के लिए तालपुट विष के समान है। (उत्तरा. १६-१३)
(२७) "वीरा जे अत्तपण्णेसी"- वीर वही है ___ जो प्रात्म-प्रज्ञा को प्राप्त हैं। (सूय. १-६-३३)
(२८) “एगत्तमेयं अभिपत्थएज्जा"-मुनि एकत्व भावना करे।
(सूय १-१०-१२) (२६) “तिविहेण वि पाण माहणे, आयहिए अणियाण संवुडे"-प्राणियो की हिंसा नही करे और संवरवान् बनकर आत्म-हित साधे । (सूय १-२-३--२१)
(३०) कई वेशधारी, गुप्त रूपसे पाप करते हुए, दूसरों के सामने प्रात्मार्थीपन का ढोग करते हैं । उस ढोग के भुलावे मे आकर लोग कहते हैं कि--यह मुनि आत्मार्थी है.-"आयय