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सम्यक्त्व विमर्श
-जो आत्मस्थित, आत्महितैषी, प्रात्मयोगी, आत्मपरा. क्रमी है, उन्हे पूर्व अप्राप्त ऐसी आत्म-समाधि उत्पन्न होती है।
(दशाश्रुत ५) (१६) आत्मा ही सामायिक, संवर, सयम, प्रत्याख्यान, विवेक, व्युत्सर्ग और इनका अर्थ है । ऐसा. भगवती १-६ मे लिखा है।
(१७) संयम और तप से आत्मा को पवित्र करते हुए विचरने का उल्लेख तो अनेक आगमो मे है। ।
(१८) "अप्पा खलु सययं रक्खियबो, सन्विदिएहि सुसमाहिएहि"-सुसमाधिवत मुनि को चाहिए कि सभी इन्द्रियो को वश में रखकर, अपनी आत्मा की सतत रक्षा करता रहे । अर्थात् प्रात्मा को मलीन होने से बचाता रहे।
(दशवै चूलि. २-१६) (१९) "कुज्जा अत्तसमाहिए"-आत्म समाधि में कायम रहे।
(सूय. १-३-३-१६) (२०) "तम्हा विऊ विरओ आयगुत्ते"- विद्वान् मुनि, विरत होकर आत्म गुप्त हो जाय । (सूय. १-७-२०)
(२१) “आयगुत्ते सया दंते, छिन्नसोए अणासवे"-इन्द्रियो का दमन करने वाला साधु, आत्म-गुप्त होकर प्रास्रव के प्रवाह को रोक देता है और निरास्रवी-संवरवान हो माता है।
(सूय -१-११-२४) (२२) “विरए आयरक्खिए"-संसार से विरत