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आगमों में आत्म-लक्षी विधान
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प्राश्रव त्यागी और आत्मवाद को प्राप्त करता है, वह निग्रंथ है ।
( सूय. १-१६ ) (१२) भिक्षु वह है जो - " उवट्ठिए ठिअप्पा " - सावधान होकर श्रात्म-स्थित होवे । ( सूय. १-१६)
“चए ठिअप्पा अणिहे जे स भिक्खू "
-प्रसंयम का त्याग कर और स्नेह रहित होकर, जो आत्मा मे स्थिर रहता है, वह भिक्षु है । ( दशवै १० - १७ ) णिच्चमायगुत्ते " - सदा श्रात्म - गुप्त रहे ।
"
( उत्तरा १५- ३ )
" आयगवेसएस भिक्खू " - जो श्रात्म- गवेषक है, ( उत्तरा १५-५ ) (१३) " अहम्मे अत्तपण्णहा.... पावसमणे ति
वह भिक्षु है ।
वुच्चई । "
आत्म- प्रज्ञा की हानि करने वाला अधर्मी, पाप श्रमण है ( उत्तरा १७ - १२ )
(१४) " विरए आयहिए पहाणवं " - भोगो से विरत, श्रात्महित में तत्पर और संयम में रहे ।
( उत्तरा . २१-२१ )
(१५) समाधि कब प्राप्त होती है, - " आयट्ठीणं आयहियाणं आयजोगीणं आयपरक्कमाणं.... दसचित्तसमाहि ठाणाई असमुप्पण्णपुव्वाइं समुप्पज्जेज्जा ।"