________________
२६०
सम्यक्त्व विमर्श
नही करे (उपेक्षा नही करे,-आत्म-दृष्टि को नही भूले, निर्जरा के उद्देश्य को नहीं छोड़े) न पर की आशातना करे, न पर प्राणभूतादि की आशातना करे। (आचा १-६-५)
(८) संयम में सावधान मुनि, किस प्रकार विचरे,
"एवं से उदिए ठियप्पा अणिहे अचले चले अबहिल्लेसे।"
-संयम मे सावधान मुनि, आत्मस्थित, रागद्वेष रहित, परीषहो के उपस्थित होने पर अचल, अप्रतिबद्ध-विह संयम की मर्यादा से बाहर विचार नहीं करता हुआ विचरे ।
(आचा. १-६-५) (६) “आयगुत्ते सयावीरे जाया मायाइ जावए।"
मुनि, आत्मगुप्त-प्रात्मा की रक्षा करता हुआ, पाप से बचाता हुआ, संयम का निर्वाह हो उतना ही पाहार करे।
(आचा १-३-३) (१०) धर्म का उपदेश वही कर सकता है,
"अत्ताणं जो जाणइ जो य लोग...... जो अपनी आत्मा को जानता है और लोक को जानता
(सूय. १-१२-२०) (११) निग्रंथ वह है जो -
"एगे एगविउ, बुद्धे छिन्नसोए....आयवायपत्ते।" -जो एक, एकविद्-प्रात्मा को जानने वाला ज्ञानी,
है....