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आगमों में आत्म-लक्षी विधान
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(३) “एगंतदीट्ठी य अमाइरूवे"-एकान्तदृष्टि -प्रात्मदृष्टि (आत्मशुद्धि-कर्मनाशक दृष्टि) से युक्त होकर माया से रहित हो। (सुय. १-१३-६)
(४) "जे एगं जाणइ से सव्वं जाणइ"जो एक आत्मा को जानता है, वह सभी जानता है ।
(प्राचा १-३-४) (५) “एगमप्पाणं संपेहाए धुणे सरीरं कसेहि अप्पाणं, जरेहि अप्पाणं, जहा जुण्णाई कट्ठाई हव्ववाहो पमत्थइ।"
-भगवान् उपदेश करते हुए फरमाते हैं कि-श्रात्मा को अकेला जानकर शरीर को धुनक डालो । शरीर को कृष्ण करो, जीर्ण करो। जिस प्रकार पुरानी लकडी को अग्नि जला डालती है, उसी प्रकार मुनि कर्मो को भस्म कर देता है।
(६)-"एवं अत्तसमाहिए अणिहे।" -प्रात्म समाधि वाला मुनि रागद्वेष रहित होता है।
(प्राचा. १-४-३) (७) धर्मोपदेश करने वाले साधु को सावधान करते हुए भगवान् फरमाते हैं कि-हे साधु तू धर्म का उपदेश करे, तो
"अणुवीइ भिवखू धम्ममाइक्खमाणे णो अत्ताणं आसाइज्जा, णो परं आसाइज्जा, णो अण्णाइं पाणाई भयाइं जीवाइं सत्ताइं आसाइज्जा"......
-धर्मोपदेश करते हुए अपनी आत्मा की आशातना