________________
आगमो में आत्म-लक्षी विधान
२६५
को त्याग चुके और त्यागने का उपदेश देते हैं । एक सजातीय प्रादर्श-पर के अवलम्बन से, अनन्त विजातीय पर से प्रीति छूट जाती है, दृष्टि हट जाती है और एक सजातीय पर के प्रति प्रशस्त प्रेम रह जाता है। इस साधना मे विजातीय-पर के प्रति निर्वेद हो जाने से, उनका पूर्व सम्बन्ध भी निर्बल, निर्बलतर
ओर निर्वलतम होकर अन्त मे समाप्त होजाता है । सजातीय प्रादर्श पर के प्रति सवेग और विजातीय हेय पर के प्रति निर्वेद भावना की उत्कृष्टता मे,प्रात्मा इतनी बलवान हो जाती है कि वह शुक्लध्यान प्राप्त कर, समस्त पर से मुक्त होकर, पूर्ण रूप से अपने-आप मे स्थिर एव निष्कम्प दशा को प्राप्त कर लेती है।
पेट मे भरे हए रोग को निकालने के लिये विरेचन लिया जाता है। उस विरेचन से पेट मे रुका हुआ मल निकल जाता है । पेट मे जमे हुए मैल को निकालने के लिए विरेचन लेने की आवश्यकता होती है, किंतु विरेचन को पेट मे से बाहर निकालने के लिए किसी दवाई की आवश्यकता नही रहती। वह तो अपने आप निकल जाता है-मल के साथ ही निकल जाता है । कपडे मे से मैल निकालने के लिए साबुन लगाया जाता है और वह साबुन मैल के साथ ही निकल जाता है। साबुन को निकालने के लिए किसी विशेष प्रयत्न की आवश्यकता नही रहती। इसी प्रकार प्रात्मा मे से पाप रूपी मल निकालने के लिए, व्यवहार धर्मानुष्ठान किया जाता है । इसमे जिस सजातीय आदर्श पर का अवलम्बन लिया जाता है, वह उतना दृढ़ और सख्त नही होता कि जिससे मुक्त होने के लिए