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सजातीय विजातीय
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पितादि हो, या देव गुरु प्रादि । इन सब को अपने से भिन्न मानना सत्य है, किंतु पर होते हुए भी माता-पितादि हितैषी
और चोर लुटेरे व शत्रु आदि मे अन्तर है। माता-पितादि रक्षक हैं और चोर लुटेरे हत्यारे आदि भक्षक है-नाशक हैं । अतएव हेय- हानिकारक पर का त्याग करना और हितकारक का आदर करना आवश्यक है, जिसके अवलम्बन से ध्येय की प्राप्ति हो।
पर भी दो प्रकार का होता है, एक सजातीय और दूसरा विजातीय। जड, विजातीय पर है और आत्मा सजातीय । पर-विजातीय पर से स्नेह करना-पुद्गल की सेवा करना, पाप है और सजातीय आत्मा की सेवा करना एवं शान्ति पहुँचाना-पुण्य है। इस प्रकार 'पर' बन्ध का कारण होते हुए भी विजातीय पर की सेवा, अशुभ बन्ध का कारण है और सजातीय पर की सेवा प्रायः शुभ-बध का कारण है।
सजातीय पर के भी दो भेद है । एक प्रकार के जीव प्रधोगामी है, बन्धनो मे अधिकाधिक बंधते जा रहे हैं, और दूसरी प्रकार के जीव ऐसे हैं जो बन्धन-मुक्त हो चुके हैं, या हो रहे हैं । प्रथम प्रकार के जीव भी विजातीय पर की तरह अवलम्बन के योग्य नहीं है, किंतु दूसरी प्रकार की सजातीय मात्माएँ, पर होते हुए भी स्वोपयोगी हैं । माता-पितादि की तरह पालक हैं । इसमे से देव-कोटि के जीव तो स्वतन्त्र हो चके हैं, और गुरु कोटि के सजातीय, स्वतन्त्रता संग्राम चला रहे हैं, इसलिए ये आदर्श हैं । इनका अवलम्बन करके हम शक्तिसम्पन्न हो सकते हैं, और उस शक्ति से समर्थ बन कर स्वतन्त्र