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सम्यक्त्व विमर्श
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नही है।
जीव, सर्वथा मुक्त भी हो सकता है, पहले हुए भी है। जब मुक्त जीव भी है, जीव मुक्त भी हो सकता है, तो मुक्त होने का कोई उपाय भी अवश्य ही होना चाहिए । वह उपाय है-निग्रंथ प्रवचनानुसार सम्यग् ज्ञानादि का आचरण करना । जिनेश्वर देव, निग्रंथ गुरु तथा जिनागमो का अवलबन लेकर जीव, बन्धन-मुक्त हो सकता है।
शका-पर से मुक्त होने के लिए परावलम्बन लेना, यह तो उन्मार्ग है, उलटा रास्ता है। क्या कभी विष से भी अमरत्व की प्राप्ति हो सकती है ? परावलम्बन बन्धनकारक ही होता है, मुक्तिदाता तो स्वावलम्बन ही है। इसलिए देव, गरु प्रादि 'पर' का अवलम्बन त्याग कर अपने आप मे लीन होना, अपने प्रापका अवलम्बन करके स्थिर-निष्कम्प हो जाना ही मोक्ष का सच्चा उपाय है। आपका बताया हुआ उपाय तो बन्धन कारक ही है । आप उसे मुक्ति का उपाय कैसे कहते हैं ?
सजातीय विजातीय एकांत निश्चयवादी पूछ रहा है कि-'पर के बन्धन से मुक्त होने के लिए पर का अवलम्बन लेने का सिद्धात असत्य है। देव गुरु और आगम भी पर है, इनके अवलम्बन से मुक्ति होने की मान्यता युक्ति-संगत नही है । इस प्रकार का कथन सम्यग् विचार युक्त नहीं है । यह ठीक है कि अपने से भिन्न सभी वस्तुएँ 'पर' हैं, फिर भले ही वह जड हो या चेतन, माता