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सम्यग्दृष्टि का निर्णय
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भगवान् के निर्णय को जानना चाहते हैं और उसी निर्णय को स्वीकार करते है । ऐमे उल्लेख हमे यह बतलाते हैं कि बिना शास्त्रीय प्राधार के अपने आपके लिए दष्टि का निर्णय कर लेना और उसे सर्वथा सत्य मान लेना अनुचित है।
यदि ऐसा निर्णय करने की शक्ति सर्व साधारण मनुष्यो मे होती, तो बहुत से मनुष्य मिथ्यादृष्टि नही रहते । तामली तापस और पूरन तापस जैसे कितने ही अजैन तापस, आत्मार्थी थे। उनकी कषाये पतली एवं उपशान्त थी, उनमे दुराग्रह नहीं था। वे अपनी मान्यता को पूर्ण रूप से सत्य मानकर कठोर साधना करते थे। फिर भी उनकी दृष्टि शुद्ध नही थी। वे भ्रम मे ही थे और अपने भ्रम को ही यथार्थ मानते थे । जब उनका भ्रम दूर हुआ, तभी वे सम्यगदृष्टि हुए । अवेयक मे जानेवाले सलिंगी मिथ्यादृष्टि की आत्म-परिणति और चर्या कितनी ऊँची होती है ? शुक्ल-लेश्या युक्त एवं मनोयोग पूर्वक संयम साधना करते हुए भी वे मिथ्यादृष्टि रहे । क्या वे अपने आप को मिथ्यादृष्टि मानते थे ? नही। वे अपनी मान्यता को सत्य एवं यथार्थ मानते थे और दूसरे यथार्थ मानने वालो को असत्य मानते थे। यदि उन्हे अपनी भूल दिखाई देती, तो वे उसे छोडकर सत्य अपना लेते । वे अपनी मान्यता को सत्य एवं सम्यग् ही मानते थे। यह उनका भ्रम था। वे भ्रम को ही यथार्थ मानते थे। इस प्रकार की भूल सामान्य मनुष्य से ही नही, पूर्वधर से भी हो सकती है। ऐसी दशा मे सामान्य मानव कहे कि-'अपने मे सम्यक्त्व होने का सत्य निर्णय मनुष्य स्वत कर सकता है, यह