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________________ २४२ सम्यक्त्व विमर्श annon ही लोग चौक उठते है। पहले उनको इसका आभास ही नही होता । इसी प्रकार मुकदमो का फैसला, प्रतियोगिता मे अपने निश्चय के विपरीत परिणाम आना, पूर्ण रूप से लाभ के विश्वास के साथ किए हुए व्यापार मे हानि हो जाना, आदि ऐसे प्रत्यक्ष उदाहरण है, जिससे हमारी धारणा एवं मान्यता के विपरीत फल होता दिखाई देता है, तब 'अपनी दृष्टि यथार्थ है या नही, हमारी प्रात्मा पर दर्शन-मोहनीय का आवरण है या नही, अथवा क्षयोपशम होगया है,'-यह कैसे जान सकते हैं ? यदि कोई अपने मन से निश्चय कर ले कि 'मैं सम्यगदष्टि ही हं,' तो क्या 'उसका यह निश्चय सत्य ही होता है, उसे भ्रम नही हो सकता, यह कैसे कहा जा सकता है ? हाँ, हम शास्त्रो की तुला पर अपने विचार एव परिणति को तोल कर निर्णय करे, तो वह बहुधा सत्य हो सकता है । इसके लिए शास्त्रो को कसौटी रूप बनाकर, उस पर अपनी परिणति को कसकर, बुद्धिमता पूर्वक निर्णय करे, सम्यगदृष्टि के लक्षण आदि अपने मे पावे, तो वह निर्णय बहुधा ठीक हो सकता है, किंतु बिना किसी प्रौढ एव वास्तविक आधार के ही मनस्वीपने से कोई अभिप्राय बनाले, तो ऐसे विचार बहुधा भ्रामक होते हैं। 'जिनागमो मे उल्लेख है कि सूरियाभ प्रादि देव और इन्द्र, अवधि जैसे प्रत्यक्ष ज्ञान के धारक होते हुए भी अपनी दृष्टि के विषय मे भगवान् महावीर प्रभु से पूछते हैं कि-"प्रभु । मैं सम्यगदष्टि हं या मिथ्यादष्टि ?" वे अपने विषय मे सर्वज्ञ
SR No.010468
Book TitleSamyaktva Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1966
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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