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________________ श्रद्धालुओं का परम आधार २२६ जैन नामधारी लोग, श्रद्धालुओ की श्रद्धा को नष्ट करने के लिये 'सर्वधर्म समभाव' की जहर की मीठी गोली खिला कर दर्शन रूपी प्रारोग्यता को नष्ट करते हैं और मिथ्यात्व रूपी रोग के घर बना देते हैं । नकली वस्तु देकर असली वस्तु छीनते हैं, मोक्षमार्ग छुड़ाकर ससार-मार्ग मे जोडते है। ऐसे लोगो से सावधान रहना चाहिये और अपने सम्यक्त्व रूपी महान् रत्न की रक्षा करनी चाहिये। श्रद्धालुओं का परम प्राधार सम्यक्त्व का मूल आधार, देव-तत्त्व पर विश्वास करना है, क्योकि धर्म का उद्गम स्थान ही देव है । सर्वज्ञ जिनेश्वर देव द्वारा उपदिष्ट धर्म ही सत्य-परम सत्य है । वह शाश्वत सुखो का देने वाला है । यही धर्म उपादेय है। परमार्थ साधक और परमपद के इच्छुक को सबसे पहले, धर्म के उद्गम स्थान देव-तत्त्व को पहिचानना चाहिए। जिस प्रकार बाजार मे ग्राहक के सामने असली, नकली, बढिया, घटिया, विशुद्ध, अशुद्ध, निर्दोष, सदोष और अच्छी बुरी सभी तरह की चीजें आती है, यह ग्राहक की योग्यता और विवेक-बुद्धि पर निर्भर है कि वह कैसी वस्तु अपनावे । असली ले या नकली, अच्छी ले या बुरी, उसी प्रकार आत्म-साधक व्यक्ति के सामने भी इस ससार रूपी बाजार मे अनेक धर्म और मन्तव्य उपस्थित होते हैं । उन सब में से किसे अपनाना, यह साधक को विवेक-बुद्धि को सोचना है। बुद्धिमान परीक्षक सोचता है कि मैं किसकी बात मान ?
SR No.010468
Book TitleSamyaktva Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1966
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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