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सम्यक्त्व विमर्श
rrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrna जो बुराइयाँ और खामियां मझ मे हैं, उन्ही बुराइयो और खामियो के पात्र का पल्ला पकड़ने से मेरा निस्तार नही होगा। जो स्वय विषय और कषाय मे ओतप्रोत है, रागद्वेष से जिनका सम्बन्ध दृढतापूर्वक लगा हुआ है, और जो अज्ञान के पाश से मुक्त नहीं हुए है, उनका प्राश्रय लेने से मेरा क्या हित होगा? जिस प्रकार दरिद्र की सेवा से कोई धनवान नही हो सकता, उसी प्रकार संसार-रत प्राणी की सेवा से मुक्ति लाभ नही हो सकता । इस प्रकार सोचते हुए, जिस सद्भागी साधक की दृष्टि जिनेश्वर देव की ओर जाती है । वह सहसा बाल उठता है कि
अहो । मिल गया। वह अचिन्त्य चिन्तामणि मिल गया। भव्य जीवो का जीवन आधार, विश्वत्राता, जिसे मैं विश्व की धर्म-हाटो मे ढूँढ रहा था, वह धर्मराज, प्रकृति की सुन्दर वाटिक के शान्त एकान्त स्थान मे मिल गया। अहो ! इस विश्व-हितकर मे कितनी शान्ति विराज रही है। इस महामानव मे न तो विषयो के विष का लेश है और न कषायो का कलुष ही । राग. द्वेष विहीन यह विश्व-पिता, प्रत्येक भव्य को यही सन्देश देता है कि
"देवाणुप्पिया ! बुज्झ ! बुज्झ !! बुज्झ !!! संबुझं कि न बुज्झह ?" मैने उस लोकनायक का महान उपदेश सुना । वह सर्वज्ञ था। उसकी वाणी अपूर्व एवं अविरुद्ध थी । दुनिया के दूसरे धर्म-नायको की तरह उसकी वाणी मे विसंवाद नही था। उस सर्वदर्शी धर्म-सम्राट ने विश्व के ऐसे