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सम्यक्त्व विमर्श
मिणं भंते ! निग्गंथं पावयणं, रोयामिणं भंते ! निग्गंथं पावयणं ।"
भगवन् । मैं निग्रंथ प्रवचन की श्रद्धा करता हूँ। यह श्रद्धा तो ओघ-सज्ञा से भी हो सकती है। शास्त्रो मे लिखा, इसलिये 'तमेव सच्चं णीसंकं जं जिणेहि पवेइयं' मानकर श्रद्धा व्यक्त की जा सकती है, लेकिन साधक आगे बढकर उत्साह पूर्वक कहता है कि-'मै निग्रंथ प्रवचन की अपूर्वता-सर्वश्रेष्ठता की प्रतीति (विश्वास-खातरी ) करता है। प्रतीति करने के बाद यदि रुचि-अपनाने की इच्छा ( आदर ) नही करे, तो भी न्यूनता रहती है, इसलिये वह यह भी कहता है कि-"मैं निग्रंथ प्रवचन मे रुचि रखता हूं,' इस प्रकार जिसकी दशा हो, वही विज्ञानभूमिका को प्राप्त सम्यग्दृष्टि है । वह अपने हृदय मे दृढतापूर्वक मानता है कि-"इस विश्व मे एक मात्र निग्रंथ-प्रवचन ही आत्मा के लिये वास्तविक अर्थ-प्रयोजन है, यही परमार्थ है, इसके सिवाय सभी अनर्थ है, दुख-परंपरा के बढाने वाले हैं, अनादि संसार के हेतु हैं,"-इस प्रकार का श्रद्धा-बल, प्रात.. स्मरणीय आनन्द, कामदेव और अरहन्नक आदि श्रेष्ठ श्रमणोपासको मे था । वे गहस्थ होते हए भी. जिनेश्वर द्वारा प्रशसित थे। उनकी दृढता, साधुओ के लिये भी आदर्श रूप थी। इस प्रकार की दृढ श्रद्धा, क्षायोपशमिक सम्यक्त्व मे होने पर वह क्षायिक सम्यक्त्व की कारण बनती है और यथाख्यातचारित्र प्राप्त करवाकर जैन से जिनेश्वर बना देती है। . वर्तमान युग मे दर्शनमोहनीय के उदय से प्रेरित, कई