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सम्यक्त्व परम दुर्लभ है
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का लक्ष्य, मुक्ति का नही होता। वे परीक्षा मे उच्च श्रेणो में उतीर्ण होकर महापण्डित कहलाना तथा लोकिक सुख-सामग्री प्राप्त करना चाहते हैं। ऐसे विज्ञान-भूमिका से शून्य व्यक्ति, उम्रभर पडते-सुनते रहे, तो भी मिथ्यादृष्टि ही रहते हैं ।
जिस प्रकार भूमि पर अनुकल वर्षा हो जाय, खूब-खब पानी बरसे, किंतु कृषक बीज ही नही बोवे, तो फल कैसे मिले। उसी प्रकार श्रवण रूपी क्षेत्र मे ज्ञान की वर्षा तो खूब होती रहे, पर विज्ञान का बीज ही नहीं बोया जाय, तो सम्यक्त्व रूपी फल मिले ही कैसे ? अथवा वर्षा खूब हो रही हो, किंतु उस पानी को पीकर पेट में उतारा ही नही जाय, तो प्यास मिटे कैसे ? जब तक विज्ञान-भूमिका प्राप्त नहीं होती, तब तक मिथ्यात्व की उष्णता दूर होकर सम्यक्त्व रूपी शीतलता प्राप्त नहीं होती । सुविज्ञान रहित ज्ञान प्राप्त करने वाले, तो अभव्य जीव भी हो सकते हैं, किंतु उससे उनका मिथ्यात्व नही मिटता। वास्तव मे विज्ञान-भमिका ही सम्यक्त्व रत्न को प्रदान करती है। इसके बाद विरति धर्म की प्राप्ति होती है-'सवणे णाणे यविण्णाणे, पच्चक्खाणे य संजमे, तात्पर्य यह कि श्रवण से ज्ञान, ज्ञान से विज्ञान, विज्ञान से प्रत्याख्यान और प्रत्याख्यान से संयम की प्राप्ति होती है । जो निसर्गरुचि सम्यक्त्व वाले हैं, वे भी प्राय पूर्व भव मे विज्ञान-भूमि को प्राप्त किये हुए होते हैं । अतएव श्रवण और ज्ञान का सुयोग पाकर विज्ञान-भमिका को बलवान एवं सुदृढ बनाने का प्रयत्न करते ही रहना चाहिए।