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सम्यक्त्व विमर्श
हए प्राणियो को सम्यगज्ञान के श्रवण का सुयोग प्राप्त होना असभव-सा है । भोग-प्रधान रुचि वाले मनुष्यो को त्याग-धर्म कैसे रुचे ? प्राप्त सुयोग और ज्ञानोपदेश श्रवण करने वाले भी दर्शन-मोह के उदय से सम्यक्त्व का वमन कर देते हैं, तो जो जन्म से तथा कोम्बिक आदि परिस्थितियो से ही निरन्तर मिथ्या बाते सुनने में रुचि रखते हैं, उन्हे सम्यग्ज्ञान श्रवण करने का सुयोग मिले ही कैसे ? तात्पर्य यह कि यदि श्रवण की भूमिका प्राप्त हो गई, तो ज्ञान की प्राप्ति होना बडा ही कठिन है । उदय भाव के वश होकर जीव, श्रवण-भूमिका को प्राप्त करके भी ज्ञान से वचित रह जाते हैं और जीवन समाप्त कर ऐसी विषम स्थिति को प्राप्त कर लेते हैं कि जिससे पुनः श्रवण-भूमिका प्राप्त होना ही कठिन हो जाय ।
पुण्योदय से किसी जीव को श्रवण के साथ सम्यग्ज्ञान सुनने या पढने का सुअवसर प्राप्त हो भी जाय तो 'विज्ञानभूमिका' का प्राप्त होना कठिन हो जाता है। यह विज्ञानभमिका ही तो सम्यक्त्व प्राप्ति करवाती है । सुनते तो बहुत हैं, पर उस पर चिंतन मनन करके अवधारण करने वाले तो विरले ही होते हैं। संसार मे ऐसे प्राणी-भी होते हैं, जिन्हे सम्यग्ज्ञान-वीतराग वाणी सुनने का सुयोग प्राप्त होता है । वे सुनते भी है, और ज्ञान का अध्ययन भी करते हैं, तथा पूर्वधर तक हो जाते हैं-नौ पूर्व से अधिक ज्ञान का अभ्यास करके महापण्डित जैसे हो जाते है, फिर भी सुविज्ञान-भूमिका की प्राप्ति के अभाव मे वे मिथ्यादष्टि ही रहते हैं। उनके पढने