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सम्यक्त्व परम दुर्लभ है
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स्पत्ति अनन्त और अन्य असख्य ) ही होते है ।
सम्यक्त्व प्राप्ति का मुख्य साधन श्रवणेन्द्रिय की प्राप्ति होना है । जिसे श्रवणेन्द्रिय प्राप्त हुई, वह ज्ञान की बाते सुन सकता है, इसलिए आगमकार ने 'सवणे णाणे य विष्णाणे ' कहा है । इसमे श्रवण की भूमिका सर्व प्रथम प्राप्त होती है । जिसे श्रवण भूमिका प्राप्त हुई अर्थात् जो श्रोता बने, उनमें से कोई अनुकूल सयोग पाकर आगे बढता है | श्रवण भूमिका मे पहुंचने वाले तो असंख्य प्राणी है, किंतु उनमे बडी सख्या प्रसज्ञी - मन रहित जीवो की है। ऐसे जीव भी सम्यक्त्व रूपी रत्न पाने के योग्य नही है । जिन जीवो के मन होता है, वे ही श्रवण की हुई वस्तु को अवधारण कर सकते है, चिंतन मनन कर सकते हैं । अतएव मात्र श्रवण मिल जाने से ही सम्यक्त्व की प्राप्ति नही हो सकती । इसके बाद मन का प्राप्त होना भी आवश्यक है ।
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श्रोतेन्द्रिय तथा मन सहित जीव को ज्ञान सुनकर सोचने की योग्यता प्राप्त होना जितना सरल है, उतना ज्ञान प्राप्ति का योग मिलना सरल नही है । बेचारे नारको और तियंचों को कौन ज्ञान सुनाता है । देवो मे भी बहुत से भोग-विलास मे सराबोर रहते हैं । ज्ञानोपदेश सुनने का योग विशेषकर मनुष्यों को प्राप्त होता है ।
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मनुष्यो मे भी सम्यग्ज्ञान के सुनाने वाले कितने ? मनार्य देशो मे ऐसा सुयोग प्राप्त होना कठिन ही है, और भायें देश मे भी ऐसा योग सरल नही है । मिथ्यात्व के चंगुल में फँसे