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सम्यक्त्व विमर्श
करले, तो यह अपवाद स्वरूप है, फिर भी मिथ्याश्रत तो अपने श्राप मे मिथ्या ही है, सम्यग नहीं है । क्योकि वह विशिष्ठ परिणति वाले किसी एक के लिए सम्यग्रूप से परिणत हुमा, किंतु अन्य लाखो के लिए तो वह मिथ्या रूप ही परिणत होकर मिथ्यात्व को पुष्ट करता है । तात्पर्य यह कि मिथ्याश्रत का पठन-पाठन, मिथ्यात्व का पोषण है, इसलिए वर्जनीय है।
सम्यक्त्व परम दुर्लभ है विश्व मे अनन्तानन्त जीव है, किंतु सम्यक्त्वी जीव उनके अनन्तवे भाग में ही है। मिथ्यात्वी जीव सम्यक्त्वी से अनन्तगुण अधिक हैं । अनन्त जीव मुक्त हो चुके और भविष्य मे भी अनन्त जीव मुक्त होगे, फिर भी मिथ्यात्वी जीव तो मुक्तात्माओ से तथा अमुक्त सम्यक्त्वियो से, सदैव अनन्तगुण अधिक ही रहेगे । इसका कारण यह कि यह सारा विश्व मिथ्यात्वी जीवो से ठसाठस भरा हुआ है। विश्व का एक भी ऐसा अाकाश प्रदेश नही जो जीव से रहित हो । सूक्ष्म जीवो से सारा विश्व ठसाठस भरा हुआ है और जीवो मे विशालतम 'संख्या मिथ्यात्वियो की ही है । एकेद्रियो से लगाकर चौरेन्द्रिय तक के (कुछ अपर्याप्त विकलेन्द्रिय और असज्ञी पचेन्द्रिय को छोडकर) समस्त जीव, मिथ्यादृष्टि ही हैं, क्योकि उन्हे न तो श्रवणेन्द्रिय प्राप्त है, न मन ही । मन के अभाव मे असज्ञी पचेन्द्रिय जीव भी मिथ्यादष्टि होते हैं । इस प्रकार इन जीवो मे मिथ्यात्व सर्वत्र व्याप्त है और ये जीव सदैव अनन्त (वन