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अविनय मिथ्यात्व
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आत्मिक शाश्वत सुख देने वाले ज्ञान के अभ्यास की खास आवश्यकता है।
हमारे कितने ही भोले भाई लौकिक ज्ञान प्रचार को भी धर्म मानते है, किंतु यह उनकी भूल है। लौकिक ज्ञान, गृहस्थ जीवन के लिए (प्रारंभ-समारम्भमय सावध जीवन के लिए) उपयोगी हो सकता है, इसलिए उसे सासारिक दृष्टि से उपयोगी कह सकते हैं, धार्मिक दृष्टि से नही।
प्रात्मलक्षी सम्यग्ज्ञान ही धर्म से सबधित है, इसलिए लौकिक ज्ञान (-कुज्ञान-अज्ञान) को सम्यग्ज्ञान नही मान लेना चाहिए । अज्ञान को सम्यग्ज्ञान कहना भी मिथ्यात्व है। यह अज्ञान-मिथ्यात्व जहा होता है, वहा न तो सम्यग्दर्शन होता है और न सम्यगचारित्र ही होता है।
शास्त्रो मे अज्ञानवादी के ६७ भेद इस प्रकार बताये हैं।
नो तत्त्वो को सप्तभगी से गुणन करने पर ६३ भेद हुए, और उत्पत्ति के-१ सद २ असद् ३ सदसद् तथा ४ अवक्तव्य, ये चार मिलाने से कुल ६७ भेद हुए । जैसे कि 'कौन जानता है कि जीव का अस्तित्व है, और इसके जानने से लाभ ही क्या है ?' इस प्रकार अस्ति, नास्ति, आदि सात भंग सभी तत्त्वो पर उतारना चाहिए ।
२४ अविनय मिथ्यात्व देव, गुरु, गुणाधिक एवं धर्म का आदर सत्कार नहीं करना-प्रविनय-मिथ्यात्व है। यह मिथ्यात्व, गुण और गुणीजनो के