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सम्यक्त्व विमर्श
प्रति अश्रद्धा होने पर उत्पन्न होती है। अश्रद्धा होने से ही अविनय होता है, इसलिए अविनय भी मिथ्यात्व है।
यदि अनजान मे गुरु आदि का आदर नही हो सके या । शारीरिक अत्यन्त अशक्तता के कारण प्रादर नही दिया जा सके, तो वह मिथ्यात्व नही है । क्योकि वहा भावो मे विपरीतता नही है, तथा इसके लिए मन मे खेद भी है । किंतु जहां मन मे अविनय के भाव उत्पन्न होता है, वही यह मिथ्यात्व उपस्थित रहता है।
२५ अाशातना मिथ्यात्व अविनय की तरह आशातना भी मिथ्यात्व है। प्राशासना का अर्थ है-विपरीत होना, प्रतिकूल व्यवहार करना, विरोधी हो जाना, निन्दा करना । देवादि तथा तत्त्व का अपलाप करना, यह सब आशातना मिथ्यात्व है । आशातना बरे भावो से ही होती है, अतएव यह मिथ्यात्व है। आशातना के दो प्रकार से तेतीस भेद शास्त्रो मे बताये हैं।
मिथ्याश्रुत का पठन-पाठन
सम्यक्त्व के लिए खतरे के स्थानो मे "पर पाखण्ड संस्तव" है । इसका उल्लेख पहले पृ० ८४ पर हो चुका है। इसमे अन्यमत के देव, गुरु, धर्म, शास्त्र, और मतावलम्बी का समावेश होता है । जिस प्रकार अन्य विचारधारा के उपाश्य का परिचय, सम्यक्त्व की रक्षा के लिए वर्जनीय है, उसी प्रकार मिथ्याश्रुत-परपाखण्ड-प्रचारक साहित्य भी वर्जनीय है । जिने