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सम्यक्त्व विमर्श
अनन्त वस्तुएँ ऐसी रह जाती हैं-जिन्हे वे नही जानते ।' इस प्रकार ज्ञान के अस्तित्व एवं शक्ति से इन्कार करना, उसकी मनमानी व्याख्या करना, ये सब प्रकारान्तर से अज्ञान-मिथ्यात्व मे सम्मिलित हो जाते हैं ।
__ कई भोले भाई, ज्ञान की अवहेलना करते हुए कहते हैं कि 'जीव के भेद, धर्मास्तिकाय, कर्म-प्रकृति, आदि पढकर मस्तिष्क खपाने की क्या आवश्यकता है ? इनसे न तो पेट भरता है (आजीविका चलती है) और न उद्धार ही होता है। देश को भी इससे कोई लाभ नही होता। इसलिए ऐसे ज्ञान की आवश्यकता नही है । प्रात्मा का हित सदाचार सयम आदि से होगा, जीवादि तत्त्वो को जानने से नही,"-इस प्रकार कह. कर अज्ञानवादी की पक्ति मे बैठते हैं। यह उनकी भूल है । इस प्रकार के विचार, धर्म के एक मल अग को ही उखाडने वाले हैं। मोक्ष के चार अंगो मे ज्ञान-साधना-ज्ञानाचार, प्रथम अग है। इसकी आराधना यथा-शक्ति होनी चाहिये।
ज्ञान की अवहेलना करने वाले अज्ञानी के व्रतादि भी निर्जरा के कारण नही होते । संसार मे भी लौकिक ज्ञान वाले का आदर होता है, तो धर्म मे अज्ञान को स्थान कैसे मिल सकता है ? लौकिक ज्ञान तो संसार बढाने वाला और कर्मबन्धनो से विशेष भारी करने वाला है। वह यदि हितकारी है, तो थोडे दिनो तक ही। यदि उदय की अनुकूलता हो, तो इस जीवन मे भौतिक अनुकूलता दे सकता है, किंतु बाद में वह जीव के लिए दुखदायक होता है । अतएव सम्यग्ज्ञान