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अत्रिया मिथ्यात्व
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अपनी अपेक्षा से क्रिया का निषेध करती है ।
भोग-प्रधान सिद्धातवादी लोगो का मानना है कि संसार ने सुख से ही रहना चाहिये । सुख ही से सुख की प्राप्ति होती है । जो तपस्यादि दुख से आत्मा को दुखी करते हैं, उन्हे सुख की प्राप्ति कदापि नही हो सकती। जिस प्रकार बबूल के पेड से आम का फल नही मिलता, उसी प्रकार व्रत-नियम और जप कर के आत्मा को क्लेशित करने से (उस क्लेश मे से) सुख की उत्पत्ति नही हो सकती। इसलिये खूब खाना पीना और मौज करना चाहिये।
उपरोक्त कथन मिथ्या है। हम संसार में भी प्रत्यक्ष देखते हैं कि जो स्वच्छंद भोग के लिये व्यभिचार करते हैं, वे करते तो हैं-इच्छा पूर्ति-सुख के लिये, लेकिन संसार मे धिक्कार के पात्र और राज्य से दण्डित होते है । जो सुख के लिये धन प्राप्त करने मे चोरी या ठगी का आश्रय लेते हैं, वे भी अपराधी माने जाकर दण्ड के पात्र होते हैं । स्वाद-सुख मे लीन होकर अधिक खाने से अजीर्णादि रोग हो जाते हैं। एक एक इन्द्रिय के सुख मे गृद्ध हो जाने वाले जीव, अकाल मृत्यु प्राप्त करते देखे जाते हैं, इससे यह प्रत्यक्ष सिद्ध हो जाता है कि भौतिक सुख, सुख का नही किंतु दु ख का ही कारण होता है और सम्यग्दृष्टि युक्त इन्द्रिय दमनादि तप, आत्मिक सुख का कारण बनता है।
सौख्यवादियो के मतानुसार, व्रत नियम और तप करने वाले अपनी आत्मा को क्लेशित करके अधोगति के पात्र बनते