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सम्यक्त्व विमश
है, दूसरा जन्मता है, यह भेद नहीं रहना था । वास्तव मे एकात्मवाद का सिद्धात-अद्वैतवाद के रूप मे सही नही है। अपनी आत्मा के समान दूसरो की आत्मा को मानकर किसी को सताना नही, अथवा आत्म-गुणो की अपेक्षा सब मे समानता मानना-एक बात है और एक प्रात्मा के सिवाय अन्य आत्मा का अस्तित्व ही नही मानना-दूसरी बात है और यह सत्य नही है।
सभी जीव अपने पूर्व-कृत शुभाशुभ कर्म के अनुसार फल पाते हैं। संसारी जीव, कर्म का कर्ता और भोक्ता भी है और कर्म नष्ट करने के उपाय भी है । कर्म नष्ट करने के उपायसवर, निर्जरा को नही मानना-प्रक्रिया-मिथ्यात्व है।
आत्माद्वैतवादी की तरह शब्दाद्वैतवादी आदि मत भी अक्रियावाद के पोषक है।
कोई प्रक्रियावादी यह भी कहते हैं-क्रिया की आवश्यकता ही क्या है, केवल चित्त की पवित्रता होनी चाहिये । इस प्रकार एकान्तवाद को ही पकड कर क्रिया का निषेध करने वाले भी इस मिथ्यात्व के पात्र हैं।
कोई प्रक्रियावादी यह भी मान्यता रखते हैं कि-'समस्त पदार्थ अस्थिर हैं, आत्मा भी अस्थिर है, इसलिये अस्थिर में क्रिया नही होती। कोई कहते हैं कि-'आत्मा निराकार और सर्व व्यापक है । निराकार वस्तु क्रियाशील नही होती, जो क्रिया दिखाई देती है, वह माया है, वह निराकार आत्मा को स्पर्श नही कर सकती'-यो अनेक प्रकार की विचारधाराएँ अपनी