________________
सम्यक्त्व विमर्श
नैतिक अथवा धार्मिक । विभिन्न दृष्टिकोण के कारण ही भेद बढते हैं और बढते बढते कलह और युद्ध तक की नौबत प्राजाती है । ससार मे जितने भी वाद है, उन सबके मूल मे यही कारण कार्य कर रहा है । जबतक दृष्टि-भेद रहे तबतक वर्ग-भेद भी रहेगा ही । कोई चाहे कि 'समस्त दुनिया एक ही विचार की बनजाय,' तो यह केवल 'खयाली पुलाव' ही है । ऐसा न तो कभी हुआ, न होगा ही । जहा एक तरह की परिणति हो, वहा साम्यता हो सकती है । यद्यपि एकेन्द्रिय विकलेन्द्रिय और प्रसंज्ञी जीवो मे भी अध्यवसायो की भिन्नता होती है, तथापि विशिष्ठ क्रियाओ मे भेद या लडाईं झगडा नही दिखाई देता और जिनके घातिकर्मों का क्षय हो गया है, उनमे भी मतभेद नही रहता । सभी असंज्ञी जीव, - शास्वादान के समय को छोडकर - सदा मिथ्यादृष्टि ही रहते हैं और सभी नोसज्ञी नोश्रसज्ञी जीव, सम्यग् - दृष्टि ही रहते हैं । दृष्टि-भेद सज्ञी जीवो मे ही होता है और मनुष्यो मे यह जितना उग्र होता है, उतना अन्य जीवो मे नही होता । दृष्टि बिगडने से बिगाड और सुधरने से सुधार होता है । जैन दर्शन, धर्म का मूल, दृष्टि सुधार मे मानता है । जिसकी दृष्टि सुधर गई, उसका सुधार अवश्य ही होगा, भले ही विलम्ब से हो । साधारण मनुष्य दूर की वस्तु को देखने के लिए दुर्बिन का सहारा लेता है, तभी वह देख सकता है, बिना दुर्बिन के नही देख सकता । इसी प्रकार हमारे जैसे जीव, शास्त्र रूपी दुर्विक्ष्ण के द्वारा ही अपने लक्ष को भली प्रकार देख सकते हैं ।
1
दुनिया में देखने की वस्तुएँ अनन्त है । कोई सुन्दर