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यथार्थ दृष्टि की आवश्यकता
वस्तुओ को देखते हैं, तो कोई असुन्दर को। कोई बिगाड़ की बाते सोचते हैं, तो कोई सुधार की । आत्म-सुधार की बातें सोचनेवाले तो बहुत थोड़े होते हैं । दुनियवी बाबतो में विद्वान बने हुए लोग, प्राध्यात्म, आत्मकल्याण, संवर, निर्जरा, मोक्ष और त्याग विरागादि की बाते सुनकर हँसते हैं और ऐसी बातें करने वालो को-'अकर्मण्य, निठल्ले, प्रतिगामी और सडे दिमाग' कहते हैं। उनके सोचने के विषय ही लोकानुसारी तथा भौतिक होते हैं, फिर वे संवर निर्जरा और मोक्ष की बातो को पसन्द कैसे करेगे?
हमें दुनिया की लोकानुसारी दष्टियो के विषय मे यहां विचार नही करना है। हमें देखना है कि वे कौनसे विचार हैं जो यथार्थ हो सकते हैं और जिनसे आत्मा पूर्ण सुखी और जन्म मरणादि दुखों से मुक्त हो सकती है। जैन दर्शन उन्ही विचारों को सम्यग् मानता है, जो सत्य हो और हिताहित का विवेक कराते हो। यो तो साधारणतया सभी जानते मानते हैं कि 'भोजन करने से भूख मिटती है, पानी पीने से प्यास बुझती है, प्राग जलाती है और कामिनी की सगति से काम जागृत होता है। सिक्के और धातु तथा हीरे मोती के खरे खोटे की पहिचान भी लोग कर लेते हैं । इस प्रकार अनेक विषयो में यथार्थ जानकारी रखते हुए भी हम उन्हें सम्यग्-दृष्टि नहीं कह सकते । जिस ज्ञान से स्व-पर का बोध होता हो, बन्धन और मुक्ति तथा उनके कारणो का ज्ञान होकर हेय ज्ञेय और उपादेय का विवेक होता हो, वही ज्ञान सम्यग् ज्ञान है और उस पर का विश्वास