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सम्यक्त्व विमर्श
पृथ्वी पर मरने से ही सुगति होती, तो एकेन्द्रिय से लगाकर पंचेन्द्रिय तक के तिर्यंच, नारक और बहुत-से दरिद्र मनुष्य, पृथ्वी पर ही प्राण छोड़ते हैं, वे सभी धर्मात्मा और सद्गति के पात्र हो जाते, फिर भले ही उनमे हत्यारे, चोर, डाकू और नर-संहारक तथा अन्त तक अशुभ-परिणामी हो रहे हो?
मृत्यु के बाद दूसरे तीसरे दिन मृतक के लिए भोजन बनाकर स्मशान मे लेजाना, पानी ढोलना, नुकता-मोसर आदि सब मिथ्या-क्रियाएँ है । जैनियो को इस मिथ्यात्व से अपना पिंड छुड़ा लेना चाहिए।
जो सज्जन, 'प्रमुख श्रावक' अथवा 'अग्रसर श्रमणोपासक' कहकर, इस प्रकार के लौकिक-मिथ्यात्व का सेवन करते है, वे साधारण श्रावको की मिथ्यात्व मे रुचि बढ़ाने वाले होते है । भले ही अग्रसर श्रावको की रुचि, लौकिक-मिथ्यात्व की ओर नही हो और वे चालू रूढि का ही रुक्ष-भाव से निर्वाह करते हो, तो भी उनको मिथ्यात्व लगता है और साधारण श्रावक उनका अनुकरण करते है, इससे दूसरो के मिथ्यात्व सेवन मे वे अनुमोदक बनते हैं । इसलिए इन मिथ्या ढकोसलो का अन्त करना, प्रमुख श्रावको का कर्तव्य है ।
विवेक एवं सद्विचार के अभाव मे तथा मानसिक दुर्बलता के कारण जैन समाज मे लौकिक-मिथ्यात्व का प्रचलन अत्यधिक हो रहा है। यह लौकिक-मिथ्यात्व, अधर्म को धर्म मानने रूप प्रथम मिथ्यात्व का साथी है । इस मिथ्यात्व से जैन समाज शीघ्र मुक्त हो, यही हितकर है।