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धर्मगत लौकिक मिथ्यात्व
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के लिए संसार का और सम्यगदष्टि के लिए मोक्ष मे कथचित सहायक हो सकता है, फिर भी तत्त्व-दृष्टि से यह बंध का कारण होने से धर्म मे नही गिना जाता। इस प्रकार बन्ध को रोकने अर्थात् प्रास्रवद्वार को बंद करने और बध को काटने की प्रवृत्ति के सिाय जितनी भी आस्रव और बध की क्रियाएँ है, वे सम्यक् चारित्र नही है । संसार की दृष्टि से जितनी भी धार्मिक साधना की जाती है, वह सब धर्मगत मिथ्यात्व है।
अजैन सम्पर्क के प्रभाव से, जैनियो मे अनेक मिथ्याक्रियाएँ प्रचलित हैं, जो लौकिक धर्मगत मिथ्यात्व को सिद्ध कर रही है । अजैन-परंपरा मे मरणासन्न व्यक्ति को पलग अथवा बिस्तर पर नही मरने दिया जाता। उसे नीचे पृथ्वी पर लिटाकर यह माना जाता है कि "वह पृथ्वी माता की गोद मे चला गया और इससे इसे धर्म एव सद्गति हई" । जैनसिद्धात कहता है कि मरणासन्न व्यक्ति को महा-वेदना होती है। इसलिए उसे हिलाना भी नहीं चाहिए । उसके लिए यही उचित है कि धर्म की ओर लक्ष दिलाकर उसकी भावना शुभ रखी जाय, जिससे उसकी शुभगति मे सहायता हो । किंतु अजैन प्रभाव के कारण जनी लोग भी पृथ्वी को गोबर से लीप कर, मृत्यु की महा-वेदना से घिरे हुए दुखी जीव को, बिस्तर पर से हटाकर पृथ्वी पर सुलाते है और उसके दुख मे अत्यधिक वृद्धि कर हिंसा के भागीदार बनते हैं । यह कितनी मूर्खता है। वे यह क्यो नही समझते कि सद्गति अथवा दुर्गति, जीव की अपनी करणी से ही होती है, पृथ्वी पर प्राण निकलने से नही । यदि