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सम्यक्त्व विमर्श
कराते हैं। लोकोत्तर प्राचार अर्थात् ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चरित्राचार, तपाचार और वीर्याचार का पालन कर, निरवद्य जीवन व्यतीत करते हैं। जिनका श्राचार-विचार और प्रचार लोकोत्तर हो, लौकिक नही हो, वे 'लोकोत्तर गुरु' कहलाते हैं | इसके सिवाय सब लौकिक- गुरु हैं । लौकिक गुरु को लोकोत्तर मानना मिथ्यात्व है और उनको लोकिक मानते हुए भी उनकी सेवा - भक्ति आदि करना भी मिथ्यात्व है | कलाचार्य और शिल्पाचार्य, लौकिक धर्म-गुरु नही कहलाते । अन्य साधनो के अभाव मे अन्य धर्मियो के पास कला सीखने जाना- एक बात है और लौकिक- गुरुओ की सेवा-भक्ति करना - दूसरी बात है । आजकल लोकोत्तर गुरु कहलाने वालो मे से किन्ही मे लोकिकता श्रागई है । वे ससार-लक्षी सावद्य प्रचार करते हैं । ऐसे लोगो को लोकोत्तर गुरु नही माना जा सकता, क्योकि लौकिकदृष्टि वाले लोकोत्तर नही हो सकते । यदि जैनियो मे यह मिथ्यात्व नही होता, तो साधुओ को लौकिक - मिथ्यात्व सेवन करने की हिम्मत नही होती ।
धर्मगत लौकिक मिथ्यात्व
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सवर, निर्जरा और मोक्ष ही धर्म है । इनमे मोक्ष, साध्य है और सवर निर्जरा साधन हैं । सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यक्चारित्र और सम्यग् तप, इन चार ( प्रथम के दो साधन नेत्र रूप, और बाद के दो चरण रूप हैं। से मोक्ष की ओर गमन होता है । पुण्य स्वत. तो बंध रूप ही है, किंतु यह मिथ्यादृष्टि