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गुरु विषयक लौकिक मिथ्यात्व
साथ जो रीति-रिवाज और विधि-विधान लगे हैं, वे सब भिन्न भिन्न हैं । उनमें परिवर्तन हो सकता है । जैनियो को ऐसी विधि अपनानी चाहिए कि जिसमे अनुचित एव व्यर्थ जैसा कुछ भी नही हो और हितकारक पद्धति हो ।
सम्बन्ध उन्ही के साथ हो, जहा आचार, विचार, स्वभाव तथा वय आदि समान हो । सम्बन्धियो की साक्षी से वरकन्या को परस्पर वचनबद्ध करना और वर को 'स्वदारसतोष ' तथा कन्या को 'स्वपति संतोष' व्रत धारण करवाना चाहिए । व्रत की प्रतिज्ञा गुरु के समक्ष अथवा योग्य व्रती श्रावक के समक्ष होकर मंगल पाठ के साथ लग्न-विधि पूर्ण हो सकती है । इसमे न तो किसी देव देवी के मनाने की आवश्यकता रहती है और न हवन-पूजनादि की। महिलाओ द्वारा मंगलगान भी तदनुरूप ही हो । इस प्रकार सरलतापूर्वक लग्न-क्रिया सपन्न कर लौकिक मिथ्यात्व से बचा जा सकता है ।
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जैनियो के त्योहारो और लग्न प्रसग पर ही नही, अन्य कई प्रसंग पर भी लौकिक मिथ्यात्व का सेवन होता है । जैसे 'माता' ' मोतीझरा' आदि कई रोगो को देवरूप मानना । इस प्रकार की जितनी भी क्रियाएँ है, वे सब लौकिक देव विषयक मिथ्यात्व है ।
गुरु विषयक लौकिक मिथ्यात्व
लोकोत्तर गुरु वेही हैं, जिनका लक्ष्य लोकोत्तर है और लोकोत्तर लक्ष रखते हुए तदनुसार आचार का पालन करते