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सम्यक्त्व विमर्श
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कि हम ऐसी जड वस्तुओ को भी पूजते हैं कि जिनके पीछे किसी देव की कल्पना ही नहीं है । जैसे-बही, दावात, कलम
और सोना, चांदी,रुपया प्रादि धन । कई जैन व्यापारी, सदैव प्रातःकाल दुकान को प्रणाम करते है, कल्पित चित्रों को प्रणाम करते है, उस समय उन्हें 'जिने एवरो के उपासक' कहना या 'जद्रोपासक-धनोपासक' कहना ?
लग्न का प्रारम ही मिथ्या देव की पूजन के साथ किया जाता है । पहला मंगल-गान भी उन्ही का होता है और पहला श्रामन्त्रण-पत्र भी उन्हे ही लिखा जाता है, उसके बाद दूसरे कार्य होते हैं। कुछ देशो मे-कुम्हार का चक्र उकरडी,कडे-करकट का ढेर आदि अनेक चीजें पूजी जाती है। लग्न-विधि भी मिथ्या विधानो से युक्त होती है, तथा लग्न के बाद वर-वधू भैरू, भवानी, सीतला, हनुमान प्रादि अनेक लोकिक-देवो को पूजते है। यह सब व्यर्थ का मिथ्यात्व सेवन है।
वर्तमान मे कुछ सुधारको की दृष्टि "जैन विवाह पद्धति" अपनाने की ओर है। इस विषय की कुछ पुस्तकें भी पहले देखी थी, किंतु उनमें भी व्यर्थ के क्रिया-कलाप बहुत थे । वास्तव मे जैन-धर्म को किसी का विवाह कराना स्वीकार नहीं है। किंतु सभी जैनी अविवाहित रहे, यह असभव है । इसलिए लग्न बंधन से मोह को मर्यादित करने के लिए लग्न किये जाते हैं। लग्न का उद्देश्य ही वर-वधु का सम्बन्ध जोडना है, जा सर्वत्र-सभी जातियों, सभी वर्गों, सभी देशो और सभी राष्ट्रा में समान रूप मे है । इसमें कोई अन्तर नही है। इस उद्देश्य के