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सम्यक्त्व विमर्श
मे ही होती है। जिस सम्यगदष्टि विद्वान से, भूल अथवा संशय से, या फिर औरो के प्रभाव से सिद्धात के विरुद्ध प्ररूपणा हो जाती है, वह फिर अभिमान वश छुटती नही । फिर वह किसी भी प्रकार से उसे सच्ची सिद्ध करने की ही चेष्ठा करता है। इतिहास प्रसिद्ध निन्हवो मे, आग्रह के जरिये यह अभिनिवेश मिथ्यात्व घुसा था । यह अभिनिवेश मिथ्यात्व, सयमियो के सयम को भी विषमय बना देता है।
धर्म में सौदा नहीं कुछ बन्धुओ ने धर्म को भी सौदे की चीज बनाली। उनका कहना है कि कुछ तुम्हारी बात रख दे, कुछ उनकी और झगडा साफ कर दिया जाय । उनकी दृष्टि मे सिद्धात और तत्त्व भी बीच-बचाव की चीज होती है। उनका प्रयत्न होता है कि दोनो को कुछ न कुछ अपना छोडना और विपक्षी का अपनाना पडता है, तभी समझौता होता है । यास्रव पक्ष वाले को कहे कि 'तू थोड़ा सवर पक्ष अपना ले और सवर पक्ष को कहे कि तू थोडा प्रास्रव अपना ले, तभी समझोता होगा'। इस प्रकार मिश्रधर्म बनाने वाले, यह नही समझते हैं कि धर्म किसी की बपौती नही कि वह चाहे जैसे फैसले या समझोते मे बाँध सके, या उसमे चाहे जो न्यूनाधिक कर सके । रुपये के पौने सोलह आने या नये ६६ पैसे करने का किस को अधिकार है ?
आगमोक्त सत्य पर दृढ रहना, सम्यक्त्व की साधना है । यह भूषण है दूषण नही, दूषण है असत्य को जानबूझकर पंकड़ रखना और यही प्राभिनिवेशिक मिथ्यात्व है ।