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१४ सांशयिक मिथ्यात्व देवादि के विषय मे अथवा तत्त्व के विषय मे शका. शील होना-साशयिक-मिथ्यात्व है।
जिनागमो मे निरूपित तत्त्व, मुक्तात्मा के स्वरूप अथवा जिनेश्वरो की वीतरागता सर्वज्ञतादि मे संदेह करना, आगमों की 'अमुक बात सत्य है या असत्य'-इस प्रकार की शंका करना, इस मिथ्यात्व के उदय का परिणाम है।
शका तो सम्यगदष्टि के मन मे भी उत्पन्न होती है। आगम की कोई बात समझ मे नही आने पर सम्यक्त्वी के मन मे भी शंका का प्रादुर्भाव होता है, क्योकि क्षायोपशमिक सम्यक्त्व मे मिथ्यात्व के दलिको का प्रदेशोदय रहता है और उसके रहते परिणाम मे चलमल होता है । यह प्रदेशोदय ही शंका का कारण होता है । यदि शंका स्थिर हुई, तो साशयिक मिथ्यात्व हो गया । साशयिक मिथ्यात्व से बचने का एक मात्र संबल, जिनेश्वर के वचनो मे दृढ विश्वास होना है। यदि मन मे "तमेव सच्चं णीसंकं जं जिणेहि पवेइयं"-रूप आस्था दृढीभूत हो जाय, तो इस मिथ्यात्व से बचना बहुत सरल हो जाता है।
प्रागमिक सत्यता विचारक के सामने एक प्रश्न उपस्थित होता है। वह सोचता है कि-"कौनसा आगम सर्वज्ञ-कथित है ? सभी लोग अपने अपने मान्य शास्त्रो को सर्वज्ञ-कथित एवं प्रामाणिक मानते हैं । दूसरो को छोड दें, तो जैनधर्म के दिगम्बर, श्वेताम्बर,