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सम्यक्त्व विमर्श
मुक्ति प्रारभ हो जाती है, किंतु संसार त्याग के बिना मुक्ति-मार्ग की क्रियात्मक सर्व आराधना, यथार्थरूप मे नही होती । इसलिए साधु से लगाकर केवली तक को देश-मुक्त माना है। जो मिथ्यात्व से मुक्त है, उन्हे मिथ्यात्वी मानना, जो अविरति से मुक्त हैं, उन्हे अविरत-असाधु मानना, जो प्रमाद, कषाय और योग मुक्त है, उन्हे अमुक्त मानना मिथ्यात्व है और सिद्ध-परमात्मा को ससारी मानना भी मिथ्यात्व है। इस प्रकार सभी तरह से मुक्त, सिद्ध भगवान् को अमुक्त मानने वाले मिथ्यात्वी हैं । समझ मे नही आता कि इस प्रकार प्राधिदैविक, आधिभौतिक और आध्यात्मिक, आधि व्याधि और उपाधि से सर्वथा मुक्त. सिद्ध-परमात्मा को मुक्त नही मानेगे, तो क्या उन्हे मुक्त मानेगे -जो जन्म-मरण और राग-द्वेष के चक्कर मे पड़े हैं ? जो भक्त के वश मे होकर अपने आराम और सुख को छोडकर भागते फिरते हैं ?
जो जैन लोग, मुक्तात्माओ से अपनी भौतिक कामनाओ __ की पूर्ति करने की प्रार्थना करते हैं, वे भी भूल करते है । उन्हे
यह तो सोचना चाहिये कि क्या वीतराग-परमात्मा आपकी सराग प्रार्थना की पूर्ति करेगे ? यदि वे सराग कामना की पूर्ति करे, तो खुद वीतराग क्यो हुए ? सशरीर अरिहत भगवान् स्वय राग द्वेष और ससार को त्यागने का उपदेश करते है, तो क्या आपको राग-द्वेष मे फंसाने में सहायक होगे ? जब शरीर. घारी अरिहंत भगवान ही ऐसा नही करते, अरे मर्यादा-पालक साधु भी ससारियो की स्वार्थपूर्ति मे सहायक नही होते, तो