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मुक्त को अमुक्त मानना
से वे यह बतला रहे हैं कि मुक्तात्माओ का भी चवन-पतन (अवतरण) होता है, अर्थात् वे अमुक्त हैं । इस प्रकार मुक्त को अमुक्त मानना मिथ्यात्व है।
मुक्त वही है, जिनके अज्ञान, मोह, वेदना, शरीर और संसार के सभी सम्बन्ध छूट चुके हो। जिनमे किसी भी प्रकार की इच्छा, आशा, तष्णा या राग द्वेष का अंश-मात्र भी नही रहा हो । ससार की सम विषम अवस्थाओ का प्रभाव जिनकी आत्म परिणति मे, किसी प्रकार की चलमलता नही ला सकते हो
और जो मुक्त होने के समय से असीम अनन्तकाल समरस में लीन, अचल एव निष्कम्प दशा मे रहते हो।
जैन-सिद्धात (प्रज्ञापना) मे सिद्धो को मुक्त-प्रसंसारी (असंसारसमापन्नक) माना है। सिद्धो के अतिरिक्त सभी जीवो को अमुक्त-ससारी माना है। यह आत्यंतिक मुक्ति की अपेक्षा से है । इसमे अतिम गुणस्थान स्थित अयोगी-केवली भगवान् को भी संसारी माना है, क्योकि अभी अचल एवं शाश्वत स्थान प्राप्त करना शेष है । जब वे लोकाग्र पर स्थित हो जाते हैं, तब उन्हे मुक्त मानते हैं। किंतु ऋमिक आत्मिक उत्कर्ष की दृष्टि से ससार मे रहकर मुक्ति-साधना करने वाले सर्व-साधको को भी देश-मुक्त स्वीकार किया है । प्राचाराग २-१६ नियुक्ति गाथा ३४२ मे लिखा कि
"देसविमुक्का साहू, सव्वविमुक्का भवे सिद्धा"। अर्थात्-छठे गुणस्थान से लगाकर केवली पर्यंत देश-मुक्त हैं और सिद्ध सर्व-मुक्त हैं । यो तो मिथ्यात्व मुक्ति से ही प्रांशिक