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सम्यक्त्व विमर्श
भगवान् हैं, दयालु हैं, दीन-बन्धु है, जगदीश्वर एवं षट्काय के 'पीहर' हैं, तो शीघ्र आइये, अवश्य आइये और इस भयकर समय में भारत की रक्षा कीजिए। इससे एक पथ और दो काज होगे, अर्थात् जीवो की रक्षा भी होगी और जैन-धर्म की प्रभावना भी होगी। जनता जैन-धर्म का प्रभाव देखकर इसकी शरण मे आ जाएगी," इत्यादि।
मैने इस लेख को स्थान नही दिया और इससे लेखक मप्रसन्न भी हुए. किंतु उपरोक्त अश पर से यह स्पष्ट हो रहा है कि 'जैन सस्थाओ मे पढकर उत्तीर्ण हुए-डिगरी प्राप्त अध्यापक भी जब मुक्त को अमुक्त मान रहे है, तब दूसरो की तो बात ही क्या है ? एक अजैन पद्य मे यह प्रार्थना की गई कि"अाज सभा मे दर्शन दो, मेरे राम कृष्ण भगवान"
इसका अनुसरण करते हुए एक जैन की ओर से भी यह पद्य बनाकर सभा मे सुनाया गया कि"आज सभा मे दर्शन दो, मेरे महावीर भगवान् ।"
जब हम मध्यकाल के जैनाचार्यों की रचनाओ को देखते हैं, तो ऐसे मन्तव्य पर उतना आश्चर्य नही होता । अजैनो के प्रभाव से, मध्यकाल के कुछ जैनाचार्य भी अछूते नही रहे । उन्होने प्रतिष्ठा आदि के अवसर पर, मुक्त जिनेश्वरो और सिद्ध भगवतो को मन्त्रोच्चार करके आह्वान किया है और यह क्रिया अब भी यथावसर होती है । मोक्ष प्राप्त जिनेश्वरो
और सिद्ध भगवतो को, ‘सादि अपर्यवसित' एवं 'मपुणरावित्ति' मानने वाले, उनको पुनः संमार मे बुलावे, तो अपनी ऐसी प्रवृत्ति