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साधु और जन-सेवा
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त्यागने मे विवेकशील होकर निग्रंथ मर्यादा का पालन करते हो, जिनका समय स्वाध्याय, ध्यान, प्रतिक्रमणादि प्रात्मोत्थानकारी कार्यों मे लगता हो, जो संसारियो के विशेष सम्पर्क से दूर रहकर अपनी साधना मे रत रहते हो और अवसर प्राप्त होने पर भव्य जीवो को मुक्ति-मार्ग का उपदेश देते हो, वे ही सच्चे साधु है। ऐसे साधु को प्रसाधु मानने वाले सचमुच मिथ्यादृष्टि हैं।
जो सच्चे साधु का डौल करते हुए भी अपने मुक्ति के ध्येय से विमुख हो जाते है और विविध प्रकार के सासारिक उद्देश्यो की ओर झुक जाते है, जिनके सोचने के विषय सासारिक है, जिनके लिखने बोलने के विषय लौकिक हैं, जो ससार के सावध कार्यों में योग देते हैं, जिनके भाषण निग्रंथ-प्रवचन की मर्यादा के बाहर जारहे हैं, वे निग्रंथ अणगार नही हैं, वे कोई
और ही है । वास्तव मे वे नाम और वेश से ही साधु है, भाव से तो वे असाधु हो चुके हैं। ससारी लोगो अथवा जैनेतर साधुओ जैसी उनकी परिणति हो चुकी है । भगवान् महावीर के निग्रंथ साधु, न तो प्रारम्भजनक सावध वचन बोलते हैं, न वैसा लिखते हैं, न गृहस्थो के और अन्यतीथियो के सभा-सम्मेलन बुलाते हैं । वे संसारियो मे चलते हुए विवादो, सवर्षों और आन्दोलनो मे नही उलझते । वे इन सब प्रपञ्चो से दूर रहकर जिनोपदिष्ट मोक्ष मार्ग पर ही चलते रहते हैं।
साधु और जनसेवा शंका-जन-सेवा के लिए तो जन सम्पर्क आवश्यक है ही और जनता के कप्टो को मिटाना ही सच्ची जन-सेवा है।