________________
१५०
सम्यक्त्व विमर्श
राग १-५-६) इसके अतिरिक्त “रोइअ णायपुत्तवयणे.... (दशवै १०-५) आदि कई आगमिक प्रमाण है। प्राचाराग १-८-१ मे स्पष्ट लिखा है कि "सव्वत्थ समयं पावं" अर्थात् सभी पर-समयो मे पाप रहा हुआ है। पुरातन प्राचार्यों मे श्री सघदास गणि, बृहत्कल्प भाष्य गा० ६२४ तथा २४८८ मे लिखते है “ आणाए च्चिय चरणं, तभंगे कि न भग्गं तु" अर्थात् आज्ञा से ही चारित्र की व्यवस्था है, अाज्ञा भंग से क्या भग नही होता ? सभी भग हो जाता है । चारित्र की अपेक्षा से व्यवहार उ. १० भाष्य गा० ३८६ मे लिखा कि "षट्काय का संयम हो, वही तक सयती माना जाता है," इत्यादि अनेक प्रमाण है। और यह तो प्रत्यक्ष दिखाई देता है कि जिस प्रकार जैन-धर्म ने अहिंसा का विकास किया और निग्रंथो ने जितना अहिंसा का पालन किया, वैसा अन्य किसी ने नही किया, न ऐसी व्यवस्था ही किसी अन्य संस्कृति में है। जिनाज्ञा से कम, अधिक या विपरीत प्ररूपणा प्रचारादि करना मिथ्यात्व है । इसी प्रकार लौकिक लोकोत्तर मिथ्यात्व आदि से बचना भी निग्रंथ श्रमणो के सिवाय दूसरो से नहीं होता। अतएव जैन-धर्म सम्मत साधुता अन्यत्र नहीं है, यह प्रकट सत्य है।
अहिंसा के अतिरिक्त असत्य-त्यागादि पाचो महाव्रतो के पालक और रात्रि-भोजन के त्यागी, ईर्यासमिति पूर्वक पैदल चलने वाले, निरवद्य एव परिमित वचन बोलने वाले, जिनकी प्रावश्यक वस्तु को प्राप्त करने की रीति, प्रागमिक नियमो के अनुसार निर्दोष हो, जो वस्तु को उठाने, रखने और मलादि